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चिंता और चिंतन
शब्दों में समरूपता क्या उनके अर्थों को भी नजदीक लाती है? मनुष्यों में यह दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जुड़वां बच्चों के व्यवहार में कई बार बहुत हद तक समानता होती है। मूल स्वभाव व गुण एक समान नहीं हों तो भी, एक तरह के होने की संभावना अधिक है। मानव की रची गयी भाषा में भी इसके अंश देखे जाने चाहिए। चिंता और चिंतन देखने में एक-दूसरे के काफी करीब लगते हैं। क्या इनके शब्दार्थ भी आपस में उतने ही समीप हैं? प्रथम द्रष्टया तो ऐसा लगता नहीं। दोनों अपनी-अपनी राह पर बढ़ते दिखाई देते हैं। मगर व्यवहारिकता से निकलकर थोड़ी-सी गहराई में उतरते ही पाएंगे कि चिंतन में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में चिंता अवश्य होती है। और वहीं चिंता में चिंतन का अंश विद्यमान होता है। यह दीगर बात है कि चिंता से चतुराई कम होती है तो चिंतन से ज्ञान में वृद्धि होती है।
चिंता, अर्थात किसी मुद्दे, संदर्भ या बात को लेकर परेशान होना। किसी होने वाले संभावित परिणाम के लिए चिंतित होना। यहां ‘चाहा या अनचाहा’ दोनों ही संभावना हो सकती है। अपेक्षित परिणाम के न होने की चिंता सताती है तो अनचाहे परिणाम के हो जाने की चिंता डराती है। हम जो चाहते हैं उसके उलट को सोच-सोच कर दिमाग खराब कर लेते हैं। इस अवस्था में एक प्रकार के डर का समावेश होता है। संदर्भित चिंतित व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुरूप व अनुकूल कार्य न होने की आशंका होती है। कई बार काल्पनिक रूप से प्रतिकूल परिणाम व अनिष्ट को सोचकर ही उद्वेलित हो जाना स्वाभाविक लगता होगा मगर यही आगे जाकर मानसिक विकार पैदा करता है। छोटी-छोटी बातों में चिंता करते ही चेहरे पर परेशानी का तेजी से उभरना अस्वस्थ मन-मस्तिष्क के प्रारंभिक लक्षण हो सकते हैं। सामान्यतः जो कुछ आपके पास है उसके छूट जाने, गुम जाने, कम हो जाने, बिछड़ जाने, बिगड़ जाने का भय या कुछ मनचाहा प्राप्त होने की चाहत, जो आपके मन में एक अभिलाषा है, उसके पूरी न हो पाने का डर, विभिन्न चिंताओं का कारण बन जाते हैं। इसे कहीं न कहीं चिंता करने वाले व्यक्ति के कमजोर आत्मविश्वास से भी जोड़कर देखा जा सकता है।
छात्रों में परीक्षा परिणाम की चिंता, युवाओं में नौकरी की चिंता, फिर परिवार की चिंता, बच्चों की चिंता, सेहत की चिंता, भविष्य की चिंता, ऐसे न जाने कितने ही व्यक्तिगत अनगिनत चिंताओं को सूचीबद्ध किया जा सकता है। यूं समझ लो कि एक आम आदमी का संपूर्ण जीवन चिंताओं में ही गुजर जाता है। लड़की पैदा हुई नहीं कि उसके दहेज की चिंता। लड़का न हो तो उसकी चिंता, हो जाए तो उसके आत्मनिर्भर होने की चिंता। आम नौकरी-पेशा घरों में, महीने के प्रथम सप्ताह में, वेतन प्राप्त होते ही चिंताओं का सिलसिला चालू हो जाता है। बच्चों की फीस से लेकर घर के आटे-दाल, मकान, बिजली, गैस, टेलीफोन के बिल की चिंता। यह तो सामान्य चिंताए हुई। और इन्हें देखकर लगता है कि ये आम चिंताएं आम आदमी को ही होती होंगी। जबकि ऐसा है नहीं। शायद बड़े होने पर चिंताए भी बड़ी हो जाती हैं। यहां जान-माल की सुरक्षा चिंता का प्रमुख कारण बन जाता है। वरना सेठ-साहूकारों को तिजोरी में से नकदी व सोने-चांदी के चोरी हो जाने की चिंता सदियों से सताती है तो बड़े-बड़े व्यापारियों को माल बिकने की चिंता और उद्योगपतियों को शेयर बाजार की चिंता आजकल आम देखी जा सकती है। अगर सब कुछ सुरक्षित और व्यवस्थित है तो अपने व्यवसायिक साम्राज्य को बढ़ाने की चिंता। और अगर यह भी कारण नहीं बन पा रहा हो तो अपने प्रतिद्वंद्वी के तेजी से बढ़ने की चिंता। लोकप्रिय लोगों की चिंताएं तो और गजब होती हैं। फिल्मों के हीरो-हीरोइनों व निर्देशकों/निर्माता को दर्जनों सफल फिल्में देने के बाद भी, नई फिल्म के रिलीज होने पर चिंता करते देखा जा सकता है। हर फिल्म के हिट होने की चिंता। नायक अपने शरीर सौष्ठव की चिंता में दुबला जाता है तो नायिका मोटे होने की चिंता में कुम्हलाती रहती हैं। नेता को चुनाव जीतने की चिंता, फिर पद की चिंता, कुर्सी मिल जाने पर प्रमुख मंत्रालय की चिंता और अगर सब कुछ ईश्वर की दया से सही है तो बच्चों को अपनी जगह कुर्सी पर बिठाने की चिंता। बात अगली पीढ़ी तक ही सीमित नहीं रह जाती है, पोता-पोती की चिंता भी बुढ़ापे में शुरू हो जाती है। ये चिंताएं आदमी के साथ अंतिम समय तक साथ रहती हैं। औरतों की चिंताओं का तो जवाब ही नहीं, अधिकांश अपनी खूबसूरती की चिंताओं में घिरी रहती हैं। और कई बार तो इतनी चिंतित हो जाती हैं कि वही उनकी नैसर्गिक खूबसूरती को कम करने का कारण भी बन जाती है। आम गृहिणी के लिए रसोई, सफाई और बच्चे चिंता के केंद्र में होते हैं तो लोकप्रिय व्यक्तियों की पत्नियां अपने पति की महिला मित्रों को लेकर चिंतित रहती है। औरतों में चिंता अधिक होती हो ऐसा भी कुछ नहीं। बस इन चिंताओं का रूप-स्वरूप विस्तारित और बदलता रहता है।
चिंता क्या आधुनिकता की देन है? सीधे-सीधे तो नहीं, मगर यह जरूर कहा जा सकता है कि पहले चिंताओं की तीव्रता और पैदा करने वाले कारण कम हुआ करते थे। आज गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने इन्हें बढ़ा दिया है। वो भी इतना कि बच्चे के होश संभालते ही उसकी चिंताएं प्रारंभ हो जाती हैं। अपेक्षा, चाहत, महत्वकांक्षा पालने का शौक है तो चिंता मुफ्त में मिलती है।
ये चिंताएं व्यक्तिगत हैं। आदमी की निजी सुख-सुविधाओं, स्वास्थ्य, व्यवस्था, उन्नति, जीत, शक्ति व वैभव से संबंधित। कुछ न कुछ कहीं न कहीं यह ÷मैं’ को केंद्र बनाकर उसके चारों ओर घूमती रहती हैं। ‘मैं’ से निकलकर बहुत हुआ तो ‘मेरे’, इन दोनों शब्दों की परिधि के अंदर ही भटकती रहती है। यही घेरा, जब ‘मैं’ और ‘मेरे’ के केंद्र को झुठलाकर स्वार्थी परिवार की मजबूत घर की दीवारों को तोड़कर बाहर निकलता है और मोहल्ले-शहर और समाज की ओर बढ़ जाता है, तो अपने बृहद आकार में यही चिंता कहीं न कहीं चिंतन का रूप लेने लगती है। समाज की चिंता, देश की चिंता, विश्व की चिंता। जब चिंताएं निस्वार्थ भाव से इंसान की सोच प्रक्रिया में शामिल हो जाती है तो वहीं से चिंतन प्रारंभ होता है।
मैं से निकलकर सर्वज्ञ सर्वत्र विद्यमान होने की, चारों ओर फैल जाने की क्रिया, अंदर से बाहर निकल जाने की प्रक्रिया, चिंता से चिंतन का सफर है। साहित्य संपूर्ण समाज को सकारात्मक दृष्टि से देखते हुए, उसके बेहतरी की चिंता करता है, तभी उसमें चिंतन होता है। एक दार्शनिक, व्यक्तिगत जीवन में भी, समस्त मानव जाति को व्यापक दृष्टि में समेटकर, उसके मूल तथ्य की जब चिंता करने लग पड़ता है तो वो चिंतन हो जाता है। समाज की असमानता से चिंतित समाजशास्त्री कुछ ऐसा करना चाहते हैं जिससे गरीब और दुखियारों का दुःख समाप्त हो। उनके वक्तव्य, कार्य, उनकी सोच, उनकी बातें जिसके केंद्र में दबे-कुचलों की चिंताएं होती हैं, सामाजिक चिंतन में डूबी विचारधाराएं बन जाती हैं। और इसे ही आगे चलकर राज्य की नीति में परिवर्तित व संदर्भित होते ही राजनैतिक चिंतन के रूप में देखा जा सकता है। इनके सुव्यवस्थित व परिभाषित होकर अकादमिक होते ही शास्त्र बन जाते हैं। यही कालांतर में अलंकृत रूप धारण कर लेते हैं। इसी तरह शनैः शनैः एक नये वाद व संबंधित तंत्र का विकास होता है। शासन व्यवस्थाओं का स्वरूप प्रभावित होता है। ये हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं। सफल होते ही इनका राज्याभिषेक हो जाता है। ये विचारधाराएं ही, विषम परिस्थितियों में आगे चलकर कई बार क्रांति और विद्रोह का कारण बन जाती हैं। इनकी जड़ों में होता है वो चिंतन, जिसके बीज सोचने वाले की चिंताओं से उत्पन्न हुए थे। यही बीज बड़ा होकर वटवृक्ष बन जाता है। इतिहास गवाह है, क्रांतियां सबूत हैं, किसी भी राजनीतिक विचारधारा का विश्लेषण करें तो पाएंगे, समाज की किसी न किसी छोटी-बड़ी मगर जटिल परेशानियों को लेकर उत्पन्न हुए चिंता से ही चिंतन का मूल रूप से जन्म हुआ था। जिसने अपनी कोख में क्रांति का जनन होने से पूर्व लंबे समय तक चिंतन किया होगा। ऐसा ही कुछ व्यक्ति की बाह्य अदृश्य व आत्मिक चिंताओं को दूर करने के लिए धार्मिक चिंतन की उत्पति होती है। धार्मिक उपदेशों व कथाओं के माध्यम से उसकी परलौकिक चिंताओं को शांत करने की कोशिश की जाती है। धर्म के द्वार पर आया व्यक्ति चिंताग्रस्त है तो धर्म के पास चिंतन है। चिंतन में नवीनता से नये धर्म की उत्पति होती है। चिंता से चिंतन का जन्म होता है तो चिंतन चिंता के नाश का कारण बनता है। चिंता से मनुष्य का सर्वनाश सुनिश्चित है तो चिंतन से समाज का कल्याण होता है। चिंता चिता में जलती है, चिंतन चेतना को जाग्रत करता है।
व्यक्ति के द्वारा चिंता करना एक स्वाभाविक गुण है। शायद हमारी इतनी अधिक चिंताएं भी हमें अन्य आम जानवरों से अलग करती है। जानवर अमूमन शरीरिक भूख के समय ही मानसिक रूप से क्रियाशील होते हैं। उनके लिए अस्तित्व की सुरक्षा ही चिंता का एकमात्र व प्रमुख कारण दिखाई देता है। अपने किसी और के लिए चिंता करना, सिर्फ मनुष्य का स्वभाव लगता है। मादा जानवर में अपने नवजात शिशु के लिए चिंता के कुछ अंश देखे जा सकते हैं। किसी और प्राणी में यह न के बराबर पाया जाता है। हम, मानव इस मामले में सबसे भिन्न हैं। और शायद यही प्रमुख कारण है जो पृथ्वी पर श्रेष्ठ कहे जाने के अधिकारी हैं। सच तो यह है कि हमारी चिंताओं को चिंतन में परिवर्तित करके ही हम सच्चे अर्थों में मनुष्य होने का गौरव हासिल कर सकते हैं।