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सीमाओं में बंधी जिंदगी
हम सीमा रेखा खींचने में बहुत विश्वास करते हैं। कढ़ाई-बुनाई करने के लिए कपड़े का टुकड़ा मिलते ही उस पर अमूमन पहले बार्डर बनाते हैं। स्कूल-कॉलेज की कॉपियों में चित्र बनाने से पूर्व कोरे कागज को चारों ओर से रेखाएं खींचकर सीमित क्षेत्र में बांध देते हैं। आदमी की तसवीर बनाना हो तो चेहरे और शरीर की बाहरी लकीरों को पहले बना लेने का प्रचलन है। खेल के मैदान में तो सारा खेल ही सीमा रेखा का है। घर बनाना हो तो सबसे पहले बाउंडरी वॉल बनाई जाती है। कारखाने का निर्माण कार्य चारों ओर मजबूत दीवार के बाद ही शुरू होता है। यहां सामान की सुरक्षा प्रमुख कारण होता है। बात सहूलियत की भी हो जाती है। ऐसा नहीं कि यह आधुनिक काल की देन है। आदिकाल में, जबसे आदमी ने अपने आप को सभ्यता के दायरे में परिभाषित करना शुरू किया, उसने सबसे पहले नगर-बस्तियों को चारों दिशाओं से चहारदीवारी द्वारा सुरक्षित किया। उसमें विशालकाय दरवाजों का प्रावधान होता था। ये नगरद्वार कहलाते थे। किले के चारों तरफ ऊंची-ऊंची प्राचीर होती। इस पर सैनिक होते। इन दीवारों को हर तरह से मजबूत किया जाता था। फिर बाहरी दीवार के साथ-साथ गहरी खाई खोदकर बाहरी दुनिया से अंदर की दुनिया को पूरी तरह काट दिया जाता था। प्रवेश द्वार बंद करते ही आप अंदर बंद। युद्ध में ये सब काम आते। विश्लेषित करने पर लगता है कि यह जीत के लिए नहीं हार से बचने के लिए होती थीं। राष्ट्र की सीमा रेखाएं शक्ति के अतिरिक्त शासक के भीतर बैठे डर का भी प्रतीक हैं।
इन सीमा रेखाओं का इतिहास बहुत पुराना है। नंबरदार, जागीरदार, सूबेदार, जमींदार ये सब अपनी सीमाओं के भीतर राज करते थे। मगर पूर्व में ये रेखाएं इतनी स्पष्ट नहीं थी। गांवों-नगरों पर आधिपत्य होता और सारा चक्कर इनकी संख्या को बढ़ाने को लेकर रहता था। जंगलों में इन सीमाओं का कोई महत्व नहीं होता था। यहां तो सब कुछ जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत पर निर्भर होता। फिर भी अलेग्जेंडर संपूर्ण विश्व पर अकेले राज के द्वारा इन सीमा रेखाओं के चक्कर को ही खत्म कर देना चाहता था। यह दीगर बात है कि उसकी जीवनरेखा अकस्मात छोटी निकली। हिटलर ने भी जर्मनी की सीमा रेखा को चारों ओर फैला देना चाहा था। मगर द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणाम ने जर्मनी को दो भागों में बांट दिया। बर्लिन की दीवार जर्मन नागरिकों के दिल पर से गुजरी थी तभी तो जल्द ही तोड़ दी गयी। मगर कुछ देशों के बीच की सीमा रेखा दिन पर दिन मजबूत की जा रही है। कई सशक्त राष्ट्र को देखें तो उन्होंने अपनी सीमाओं को सुरक्षित करने के उद्देश्य से कंटीली तारों का जंजाल फैला दिया। अगर दूसरी ओर कमजोर राष्ट्र है तो वो अमूमन इस बात से निष्फिक्र होता है। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं। जिनके पास कुछ है वो ही सीमाओं की चिंता करते हैं। नियम, कायदे-कानून का सख्ती से पालन करते हैं। वरना गरीब की झोंपड़ी के बाहर दीवार नहीं होती। हां, चीन की दीवार की अपनी एक विशिष्ट कहानी है। पूरा इतिहास है। वो एक सशक्त राष्ट्र की सुरक्षा में सदियों तक सफल प्रमाणित हुई। उसने बहुत हद तक बाहरी संस्कृति के प्रभाव से भी अपनी सभ्यता को बचाए रखा। यह दीगर बात है कि अंदर की कई दर्दभरी कहानियां चीख बनकर उभरी मगर इन मजबूत ऊंची-चौड़ी दीवारों से टकराकर उसी में चुनवा दी गयीं।
कहा जा सकता है कि इन सीमा रेखाओं का प्रचलन मानव क्रम के साथ और अधिक बढ़ता चला गया। देशों की अपनी सीमाएं बनी, देश के अंदर राज्यों का क्षेत्र सुनिश्चित हुआ तो राज्य के अंदर शहर, शहर में छोटे-छोटे मोहल्ले-कालोनी और फिर उसके अंदर निजी संपत्ति। सब कुछ सीमाओं द्वारा परिभाषित और चिन्हित। थानों की भी अपनी सीमाएं हैं। एक थाना क्षेत्र की पुलिस दूसरे थाना क्षेत्र में वारदात होने पर कार्यवाही नहीं करती। अच्छा है, इससे अनुशासन बना रहता है। ऐसे में किसी भी पुलिस वाले के लिए कितना आसान है यह कहना कि यह हादसा हमारे क्षेत्र का नहीं। लेकिन फिर इसका क्या किया जाए जब किसी हादसे में घायल मुलजिम दो थाना क्षेत्र की सीमा में गिर जाए। तब हमें न्यायालय का दरवाजा खटखटाना चाहिए। मगर यहां भी मुश्किल है, इनकी भी तो अपनी सीमाएं हैं। माननीय न्यायालय संविधान द्वारा संचालित होते हैं। कह सकते हैं कि इन नियम कायदे-कानून ने ही न्याय प्रक्रिया को सीमित कर रखा है। कानून की अपनी सीमा रेखा है। मुश्किल बस इतनी है कि संविधान का पालन करते-करते कार्यालय से लेकर संसद तक में निर्णय लेने की कोई समय सीमा नहीं रह जाती। ठीक भी तो है एक समय में एक ही सीमा का पालन हो सकता है। या तो नियम का या समय का। खैर, जहां कानून का बस नहीं चलता वहां फिर धर्म तो है ही। उसे मानव ने सबसे शुद्ध और अहम चीज बना दिया है। वह इसके लिए जीता है तो इसी के लिए मरता भी है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसी के लिए दूसरे की जान भी लेता है। अजीब विडंबना है, सारे ज्ञान, मानवता, भावना, जीवनदर्शन, सामाजिकता व नैतिकता की परिभाषा गढ़ने वाले धर्म की भी अपनी सीमा है। यह दीगर बात है कि इसकी सीमाएं मजबूत व अभेद्य हैं। इसमें कोई दूसरा धर्म प्रवेश नहीं कर सकता। हां, अन्य धर्म वाले की इच्छा है तो उसे धर्म परिवर्तन वाले एकमात्र द्वार से ही अंदर आना होगा। ऐसे द्वार सभी धर्म ने अपने-अपने क्षेत्रों में खोल रखे हैं। धर्म से याद आया, धर्म के रखवाले, एक से अधिक होते ही उनकी भी अपनी-अपनी सीमाएं चाहे-अनचाहे ही खींच जाती हैं।
धर्म की सीमाएं कट्टरता की प्रतीक हैं। यह वास्तविकता में कहीं दिखाई तो नहीं देती लेकिन इतनी प्रभावशाली हैं कि इसमें अतिक्रमण होने पर दंगा-फसाद से लेकर युद्ध तक हो सकता है। इसमें बदलाव या आगे-पीछे होने की कोई गुंजाइश नहीं। यह आदमी के दिमाग पर, कई तरह से भयभीत करने वाले औजारों द्वारा भावनाओं की स्याही से गहरे तक अंकित है। अक्सर मठाधीशों को अपनी-अपनी धार्मिक सीमाओं के ऊपर झगड़ते देखा जा सकता है। ये अपने समर्थक अनुयायी को आपस में लड़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं। यही नहीं अपने तथाकथित धर्म की रक्षा के नाम पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अधर्म करने के लिए कहा जाता हैं। इतिहास के पन्नों पर, अनगिनत सामान्य जन का खून का बहना, कई बार इन सीमाओं की रेखाओं का आपस में उलझने का परिणाम है।
उलझती तो विचारधाराएं भी हैं। बड़े-बड़े विचारकों ने नयी नयी विचारधाराएं समाज को नियमित और संचालित करने के लिए बनाई। समय की आवश्यकतानुसार इनका जन्म होता है। इनकी अपनी, विचारों की भी अपरिभाषित सीमा रेखाएं हैं। एक-दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण करने पर यह भी लड़ने लगते हैं। शब्दों के बाण चलते हैं। और फिर आदमी इंसान से जानवर होता हुआ कब हैवान बन जाता है पता ही नहीं चलता। सारी विचारधाराओं के निहित नैतिकता धरी की धरी रह जाती हैं। मामला एक बार फिर इसी सीमा रेखा के आपस में टकराने से ही उत्पन्न होता है।
नदी, नाले, पहाड़, सागर पर तो आदमी ने अपनी आवश्यकतानुसार लकीरें खींच-खींच कर अपने और पराये को परिभाषित करने की हास्यास्पद कोशिश कर रखी है। कई देशों की सीमा रेखाओं के साथ कुछ महान नदियां अठखेलियां खेलती प्रतीत होती हैं। अनेक बार ये एक देश में प्रवेश करती हैं तो कई बार वहां से बाहर निकलती हैं, मानों मल्टीपल वीजा ले रखा है। कुछ स्थान आज इंसान की पहुंच से बाहर हैं, तो क्या हुआ? उसे ‘नो मैन्स लैंड’ कहकर मनुष्य ने अपनी व्यवहारिकता में होशियारी का प्रमाण दिया है। अर्थात जब इंसान यहां पहुंच जाएगा तब इसे बांट लिया जाएगा। रिकार्ड के लिए कंप्यूटर ने सारा काम आसान कर दिया तो रही-सही कसर सेटेलाइट ने पूरी कर दी। जो गली-गली खबर रखने के लिए ऊपर से झांकता रहता है। वरना तहसीलदार साहब की ताकत, वर्षों तक कागजी रिकार्ड में इन्हीं अदृश्य अस्पष्ट रेखाओं के चक्कर में थीं। बहरहाल, इन सब चक्करों में हवाएं भी अब सीमाओं में बंधने लगी हैं। आकाश को भी बांधा जाने लगा है। उन्मुक्त उड़ते पंछियों की तरह हवाई जहाज उड़ नहीं सकते। दुश्मन के हवाई क्षेत्र में से नहीं गुजारा जा सकता। लंबा चक्कर काटकर जाना होता है। देश के अंदर भी आजकल कुछ क्षेत्र प्रतिबंधित कर दिए गए हैं। जिनके अंदर प्रवेश करते ही मिसाइलें दाग दी जाती हैं।
इस सीमा रेखा की कहानी बड़ी अजीबो-गरीब है। यह यहीं पर आकर नहीं रुकती। हमने दिशाओं को भी मुख्य रूप से चार और फिर आठ भागों में बांट रखा है। इनके बीच में अटे पड़े क्षेत्र को परिभाषित कर नाम भी दे दिया है। वो तो भला हो सृष्टिकर्ता का कि अंतरिक्ष में जाते ही पूरब-पश्चिम तथा ऊपर-नीचे की कहानी समाप्त और सब कुछ दिशाहीन हो जाता है। यहां आकर सभी सीमा रेखाएं लुप्त होती प्रतीत होती हैं। मगर आदमी की फितरत कहां रुकने वाली। इसने अंतरिक्ष को भी शब्दों में बांधने की कोशिश की है। आकाश गंगा, ब्रह्मांड, सौरमंडल और न जाने क्या-क्या? नित नये विचार नयी-नयी परिभाषाएं।
समय क्या है? काल को परिभाषित कर शब्दों की सीमा रेखा के अंदर बांध देना। एक तरह से इसके निरंतर प्रवाह को सीमित करना है। हमने अपनी सहूलियत के लिए किसी भी क्षण को सेकेंड, मिनट, घंटे, दिन और वर्ष के पैमान में ढाल दिया। इस परिभाषा की सीमा रेखा में बंधकर, ये अनमोल अपरिभाषित अदृश्य शक्ति, पता नहीं क्या सोचती होंगी? अनंतकाल से अनंतकाल तक बहने वाले कालचक्र को भी इंसान ने खंडों में विभाजित कर दिया। और अपने ही लोगों को भूत, भविष्य और वर्तमान के चक्कर में उलझा दिया। अरे, इस आदमी की फितरत का कोई हिसाब नहीं। इसने तो अपनी कल्पना में, अपने ही ईश्वर का विभाजन कर, उसके कार्य और अधिकार को भी सीमाओं में बांध दिया। इस इंसान की सोच कितनी सीमाओं में बंधी हुई है, अगर आपको देखना है तो अपने दृष्टिकोण की आंखें बंद कर, मुक्त होकर सोचिए, रेखा ही रेखा दिखाई देगी। जिनके बीच में जीवनरेखा अपने अस्तित्व के तलाश में उलझती, टूटती, अदृश्य होती-सी प्रतीत होती है।