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रेल में चलता जीवन
रेल इंजन पहले कोयला खाया करते थे फिर तेल पीने लगे और अब बिजली चूसते हैं। ये कुछ शब्द अपने मित्र के छोटे से बच्चे के कौतूहल भरे प्रश्न के जवाब में मैंने यूं ही कह दिये। मगर इसके पश्चात हम दोनों बहुत देर तक हंसे थे। बच्चों की हंसी में भी निश्छलता होती है। यह सच है, कुछ दशक पूर्व तक भाप वाले काले और मोटे पेट के इंजन रेलगाड़ी की पहचान हुआ करते थे। छुक-छुक रेलगाड़ी ने, जाने कितनी कविताओं और गीत की रचना कर दी। ज्यादा पुरानी बात नहीं है, उस जमाने में सफर करने वालों के चेहरे और कपड़े अमूमन काले हो जाया करते थे। यहां बात वातानुकूलित कोच की नहीं, आम शयनयान की हो रही है। इंजन से निकलने वाले धुएं से ट्रेन के यात्रियों का बुरा हाल हो जाता था। इसमें कोयले का अंश होता। फिर भी लंबे साथ का प्रेमपूर्वक रिश्ता बना रहा। वैसे भी उन दिनों, दिल साफ और जीवन निष्फिक्र होता। और कई नियमित सफर करने वाले तो चाय पीने के लिए स्टीम इंजन से ही गर्म उबलता पानी ले आया करते थे। इस भाप के इंजन ने दुनिया की रेल पर एक पूरी शताब्दी शासन किया है। और जहां से भी गुजरा लोगों से अपने आप को जोड़ लिया। धीरे-धीरे, ये कब रेलवे संग्रहालय में यादगार के रूप में खड़े कर दिए गए, पता ही नहीं चला। मानों बच्चों के रहते घर का बूढ़ा वृद्धाश्रम में भेज दिया गया हो। सच, समय बड़ा निष्ठुर है। बहरहाल, इनकी विदाई के कई कारण हैं। बेहतर और शक्तिशाली डीजल इंजन की उपलब्धता। वैसे भी कोयले की खदाने तेजी से समाप्त हो रही थीं और भविष्य में हालात बिगड़ते इससे पहले विशेषज्ञों ने डीजल इंजन का बड़ी संख्या में उपयोग शुरू कर दिया। इस बात से हम अंजान नहीं कि डीजल भी बहुत लंबे समय तक हमारे साथ नहीं रहेगा। आवश्यकता आविष्कार की जननी है और रफ्तार के लिए विश्व में बिजली के रेल इंजन का प्रयोग भी बड़ी तेजी से उभरा और चारों ओर फैल गया। रेलवे ट्रैक का विद्युतीकरण, इस विभाग का एक महत्वपूर्ण और विशाल काम, निरंतर जारी है। आधुनिकीकरण की आंधी रेलवे के हर विभाग में तेजी से बह रही है। लॉलटेन की लौ में दिखने वाला सिग्नल अब आधुनिक बिजली उपकरणों व इलेक्ट्रॉनिक कंट्रोल से नियंत्रित है। ड्राइवर-गार्ड-कैबिनमैन-स्टेशन-मास्टर वॉकी-टॉकी से निरंतर संपर्क में रहते हैं। प्लेटफार्म का स्वरूप आधुनिक हीरो-हीइरोन और उनके परिधानों की तरह फैशनेबल और चमकदार हुआ है। फास्ट-फूड ने कैटरिंग व्यवस्था में भी पूरी घुसपैठ की है। और मिट्टी के कुल्हड़ तकरीबन नदारद हैं। टीटी साहब के रुतबे में फर्क आया है या नहीं? कहा नहीं जा सकता। मगर आरक्षण की सुविधा में जरूर फर्क आया है। आधुनिक युग में मध्यम वर्ग की सहूलियतें बढ़ी हैं। रेलवे इसका प्रमाण है। यह दीगर बात है कि जमीनी हकीकत में आम आदमी अभी भी अनारक्षित डिब्बे की भीड़ में पिस रहा है।
विगत सप्ताह छोटी बेटी के साथ रेलवे स्टेशन जाना हुआ। एक विशिष्ट मेहमान का व्यक्तिगत रूप से स्वागत किया जाना था। इसका भी एक मजा है। यह हवाई और बस अड्डों पर नहीं मिलता। अगर बहुत भीड़भाड़ न हो और आराम से खड़े या बैठ जाने को मिल जाए तो रेलवे स्टेशन पर समय बड़े मजे से काटा जा सकता है। जहां भी नजर डालें, एक नया जीवन नये भाव के साथ मिल जाएगा। अनगिनत चरित्र। चहल-पहल और रौनक इतनी की आदमी अकेलापन महसूस नहीं कर सकता। कहानीकार और उपन्यासकार के लिए कई कथासूत्र उपलब्ध होते हैं। चेखव ने अपनी कई लोकप्रिय कहानियां प्लेटफार्म पर ही लिख दीं। भारतीय सिनेमा में भी रेल भरपूर दिख जाता है। वायुयान में सफर करने वाले आज के हीरो-हीरोइन को रेल में सफर करता दिखाकर निर्देशक आज भी दर्शक से जुड़ जाता है। बहरहाल, छोटी बेटी ने जब कहा था कि उसे ट्रेन में सफर करना वायुयान या बस-कार से बेहतर लगता है, वो भी शयनयान के डिब्बों में, सुनकर एक बार तो मुझे आश्चर्य हुआ था। और फिर मैं भी सोचने लगा। सच तो है। ऐसा जीवंत सफर और कहां हो सकता है? विशेषकर जब परिवार या खास दोस्तों के समूह में लंबी यात्रा पर निकला जाए और आप सभी की सीट-बर्थ आमने-सामने हों। ऐसे में चौकड़ी में बैठकर गपशप, खाना-पीना और यहां तक की ताश के पत्तों का खेल भी बेहद मनोरंजक बन पड़ता है। खिड़की से आने वाली तेज हवा, गर्मी के दिनों में भी बुरी नहीं लगती और पसीना सूख जाता है। बहुत कम यात्री सोते हुए सफर करना पसंद करते हैं। वरना ढेर सारी बातें करने का भरपूर मौका मिलता है। और याद करते-करते मैं अपने बचपन में पहुंच गया था।
पिता रेलवे कर्मचारी थे। कुछ वर्षों के अंतराल में नियमित स्थानांतरण होता। अमूमन छुट्टियों में दादी या नानी के घर जाने के लिए ट्रेन से लंबा सफर तय करना पड़ता। सीट आरक्षित करा कर ही हमारा परिवार यात्रा पर निकलता। रास्ते में पिता के जानने वाले मिल जाते और एक बृहद परिवार का अहसास होता। सफर में खाने-पीने के लिए पहले से पूरा इंतजाम किया जाता। जिसमें कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन होते। अमूमन ये सूखे और जल्दी खराब न होने वाले बनाए जाते। पूड़ी-सब्जी और आचार। घर की बनी मिठाइयां व नमकीन। बाजार का प्रचलन कम था और मां के हाथ के बने खाने में गजब स्वाद होता। तभी तो गाड़ी में बैठते के साथ हम बच्चों को भूख लग आती। पूरे रास्ते ऊपर-नीचे की बर्थों पर धमा-चौकड़ी मचाना और कुछ न कुछ खाना। यही तो काम होता। उम्र के साथ-साथ स्टेशन और शहर के नाम याद हो जाते। टेलीफोन और बिजली के खंभों को पीछे भागते हुए अक्सर देखते तो कई बार गिनने लग पड़ते। रास्ते में नदी-नाले, पहाड़, पेड़, घर-मकान-कारखाना, सड़क, जंगल और रेल किनारे शौच करते आदमी-बच्चों का आम दृश्य सेकेंड में आंखों के आगे से निकल जाता। लूडो और सांप-सीढ़ी खेलने के लिए इतनी लंबी इजाजत और कहां मिल सकती थी। आमतौर पर आसपास की बर्थ पर सफर कर रहे परिवार से भी संबंध बन जाते और खाने-पीने का आदान-प्रदान होता। दूसरे के घर के व्यंजनों में, बालपन में, न जाने क्यों अधिक स्वाद मिलता। और हम लोग खूब मांग-मांग कर खाते। सत्यानाश कर दिया आज के आधुनिक युग ने, तभी तो हर इंसान एक-दूसरे के शक के दायरे में आ चुका है। प्लेटफार्म पर चिल्ला-चिल्लाकर की जा रही उद्घोषणा कि अनजान यात्री द्वारा दी गयी चीजें मत खाइए, हमारे इंसान होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। और कोई भी लावारिस सामान देखकर डर लगने लगता है। हमारा बचपन इस भय से मुक्त था।
आज बहुत कुछ बदल गया है। लेकिन जीवन आज भी इन रेलों में चलता-बढ़ता हुआ देखा जा सकता है। प्लेटफार्म पर कई परिवार पलते हुए देखे जा सकते हैं। रेलवे का अपना एक संसार है। इनका अपना प्रशासन है। अपना बजट, अपनी पुलिस और न्यायिक व्यवस्था। इसमें कोई शक नहीं कि अंग्रेजों द्वारा विकसित ये विभाग अपनी विशिष्ट पहचान आज भी कायम रखे हुए हैं। ब्रिटिश युग में अंग्रेज ड्राइवर हुआ करते थे। बाद में एंग्लो इंडियन बहुतायत में देखे जा सकते थे। और आज भी रेलवे के आसपास बसी पुरानी बस्तियों में ‘जूली’ फिल्म के ओमप्रकाश का दृश्य आम देखा जा सकता है। स्टेशन के चारों ओर दिन-रात रौनक होती है। न तो रेल और न ही रेल वाले सोते लगते हैं। किसी भी शहर में चाय या नाश्ते की मुश्किल हो रही हो तो देर रात भी नजदीक के स्टेशन के बाहर या अंदर एक कोशिश की जा सकती है। कुछ न कुछ जरूर मिलेगा।
1853 में अंग्रेजों द्वारा मुंबई से ठाणें की मात्र 34 किलोमीटर की लंबाई से प्रारंभ की गयी रेल यात्रा अब एक लंबा सफर तय कर चुकी है। यह दुनिया की विशालतम रेल में से एक है। ब्रॉड-गेज, मीटर-गेज, नैरो-गेज, दार्जिलिंग, शिमला, श्रीनगर की ऊंचाइयों के साथ-साथ समुद्र के किनारे-किनारे कोंकण क्षेत्र से होते हुए दिल्ली व कोलकत्ता की जमीन के अंदर और हवा में रेल की पटरियों को बिछा दिया गया। मेट्रो और लोकल महानगरों की जीवन-रेखा बन गयी। लंबी दूरी की ट्रेन में हमने शताब्दी व राजधानी के साथ-साथ जनशताब्दी और गरीब-रथ चलाकर दो वर्ग खड़े कर दिए। राज व्यवस्था खत्म जरूर हुई है मगर पूंजीवादी प्रजातंत्र ने कई महाराजा समाज को दिए। इनके लिए पैलेस-ऑन-व्हील ट्रेन भी हैं। पता नहीं ये दक्षिण अफ्रीका के राजनीतिक घटनाक्रम का असर था या स्वतंत्र चिंतन, जो महात्मा गांधी ने रेल के संदर्भ में एक अलग दृष्टिकोण ‘हिन्द स्वराज’ में प्रदर्शित किया। वे इसमें एक दार्शनिक समाजशास्त्री के रूप में दिखाई देते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इन रेलों के माध्यम से समाज का नकारात्मक गलत तत्व तीव्रता से इधर से उधर जा रहा है। शासक और व्यापारी वर्ग के लिए भी रेल अधिक उपयोगी और लाभदायक है। बचपन में चोर-उचक्कों से बचने के लिए, बक्सों और बैगों को पिता भी चेन से बांधा करते थे या नहीं? याद नहीं। मगर मैं ऐसा अब जरूर करता हूं। और बेटी को भी बताकर समझाकर भेजा था जब वो दक्षिण की स्कूल-यात्रा पर गयी थी। यह आज का सत्य है। फिर चाहे आप वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में ही सफर क्यूं न कर रहे हों। शायद इन वर्गों में अब ज्यादा जरूरी हो गया है। बड़ी संख्या में असामाजिक तत्व रईस और उच्च वर्ग में पहुंच चुका है। और यह तीव्रतम रफ्तार से धंधा करने के लिए जल्दी से जल्दी गंतव्य तक पहुंचना चाहता है। यहां गांधीजी के हिन्द स्वराज का रेल तथ्य प्रामाणित होता-सा प्रतीत होता है। अब इसमें रेल का क्या दोष? यह हमारे समाज की अवस्था है तो फिर उसी तरह की तो व्यवस्था बनेगी। बहरहाल, इन सबके बीच में भी कई जिंदगियां नयी-नयी कोमल आशाओं के साथ इन रेलों में सफर करती है। नये विवाहित जोड़े का नये सपनों के साथ कहीं जाना तो बेटे का नयी-नयी नौकरी से घर छुट्टी पर आना। इस दृश्य को किसी बूढ़े मां-बाप की आंखों से देखें। स्टेशन पर छोड़ने आने वालों की आंखों से अनायास निकलते आंसू दिल भर देते हैं। और हम प्लेटफार्म पर जाने वाले को दूर तक हाथ हिलाकर विदा करते हैं