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गर्मी में गर्मी का मजा लें
‘लोहा लोहे को काटता है’ पुरानी कहावत है। इसका भावार्थ सारगर्भित है, व्यवहारिक सत्य है और यहां उतना ही संदर्भित भी। जहर की काट के लिए जहर का इस्तेमाल ही किया जाता है। कहना बहुत आसान है मगर युद्धभूमि में गोले-बारूद का जवाब शराफत और इंसानियत से नहीं दिया जा सकता। गुंडे-मवाली के लिए पुलिस को भी कई बार डंडे बरसाने पड़ते हैं। पता नहीं क्यूं, मगर यह सच है कि ठंड में आईसक्रीम खाने का फैशन है। आधुनिक परिवेश में, खासकर युवकों से अधिक युवतियां-महिलाएं इसका आनंद उठाती हैं। पहाड़ों पर आईसक्रीम खाती हुई युवा पीढ़ी आम दिख जाएगी। शिमला के मॉल रोड पर सोफ्टी खूब बिकती है। यह प्रयोग मैंने भी किया तो पाया सचमुच इसे खाने में मस्ती आती है। स्वाद तो पूरा मिलता है ऊपर से ठंडी नहीं लगती। ठंडे पानी से नहाने पर ठंड भाग जाती है। यूरोप में विशेष अवसर पर बर्फ के पानी से नहाने की पुरानी प्रथा है। कई स्थानों में इसे पारंपरिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। ठीक इसी तरह से पहाड़ और ठंडे प्रदेश में शीतऋतु में घूमने जाने का मजा ही कुछ और है। तो क्या इन उदाहरणों में भी ठंड को ठंड रोकती है? हो सकता है। वैसे भीषण ठंड भी कम तंग नहीं करती। बर्फ गिरते देखना एक पर्यटक के रूप में कुछ समय के लिए अच्छा लग सकता है लेकिन वहां रहना पड़े तो समझ आएगा कि यह बेहद मुश्किल और कठिनाइयों से भरा होता है। मगर अमूमन हम ठंड में भी गर्म प्रदेश की ओर नहीं भागते। उसका आनंद लेते हैं। वर्षा ऋतु तो फिर मनमोहक होती ही है। तो फिर यहां सवाल उठता है कि हम गर्मी से क्यों भागते हैं? परेशान क्यूं होने लगते हैं? कहीं सृष्टि ने इसे बनाकर कोई गलती तो नहीं कर दी? चारों ओर हमारी प्रतिक्रियाओं को देखकर तो यही लगता है।
खुद देख लीजिए, हिल स्टेशन की ओर गर्मियों में पर्यटक भागे चले जाते हैं। कारण कई गिनाए जाते हैं। मसलन, अधिक तापमान से बचने के लिए। पहाड़ों की ठंडी हवा राहत प्रदान करती है। इन दिनों छुट्टियां भी होती हैं। लेकिन फिर पहाड़ों पर इस दौरान बहुत भीड़ हो जाती है। और कई बार तो धक्का-मुक्की वाली बात तक हो जाती है। होटलों में कमरे नहीं मिलते और अगर मिल भी जाएं तो दुगुनी कीमत पर। रेस्टोरेंट में छीना-झपटी जैसे हालात पैदा हो जाते हैं। एक टेबल पर, जहां बैठकर आप कुछ भी खा-पी रहे हैं, इत्मीनान की अपेक्षा करते हैं मगर बगल में दो-दो लोग आपके टेबल छोड़ते ही बैठने के लिए खड़े मिल जाएंगे। बड़ा अजीब लगता है। कई बार तो खाना खाया ही नहीं जाता, अटपटा जो लगता है। होटल वाला भी आधा कच्चा-आधा पक्का खिलाने में यकीन करता है। खाने का वो स्वाद नहीं मिल पाता। ऊपर से हर जगह कतार ही कतार। ट्रेन में आरक्षण नहीं, कार पार्किंग में जगह नहीं, वायुयान पहाड़ों पर अमूमन कम ही जाते हैं और फिर सभी इससे सफर भी नहीं कर सकते। हालत इतने बदतर हो जाते हैं कि शिमला हो या मसूरी या फिर नैनीताल, इनकी मॉल रोड पर लोग आपस में टकराने लगते हैं। ऐसा लगता है कोई मेला हो, जुलूस निकल रहा हो। छोटे-बड़े स्थानीय पहाड़ी क्षेत्रों में भी यही नजारा होता है। फिर मध्य प्रदेश का पंचमढ़ी हो या दक्षिण का ऊटी या फिर पूर्वोत्तर में शिलांग-दार्जीलिंग इत्यादि। ऐसे में अगर कोई छोटा बच्चा बिछड़ जाए तो उसे ढूंढ़ना तक मुश्किल हो जाता है। पानी की बोतल नहीं मिलती तो होटल की प्लेट कई बार साफ नहीं होती। अर्थात अराजकता का माहौल होता है। कई बार छुट्टी बिताने का आनंद भागमभागी में ही बीत जाता है। फिर भी हम इन्हीं दिनों जाते हैं। यह बीमारी हम हिन्दुस्तानियों में ही नहीं है। विश्व की अन्य सभ्यताओं में भी अधिकांश आम परिवारों के द्वारा यही गलती की जाती है। इसे भेड़चाल कह सकते हैं। क्या गर्मी इतनी कष्टदायक है? शायद नहीं। भीषणता और तीव्रता के पैमाने पर ठंड और गर्मी दोनों बराबर से तंग करती है। फिर भी ठंड के लिए हमारे मन में एक सकारात्मक दृष्टिकोण है तो गर्मी के लिए नकारात्मक। आखिरकार ऐसा क्यों? जबकि प्रकृति का संतुलन हर जगह बराबरी से मिलेगा।
विश्व इतिहास पर प्रकाश डालें तो रेगिस्तान और बर्फीले प्रदेशों में मानवीय सभ्यता का विकास बड़ी मुश्किल से हुआ। दूर-दूर तक फैली रेत हो या बर्फ, देखने में सफेद चादर-सी बिछी दिखाई देती है। दोनों ही स्थानों पर अटूट शांति लगेगी, सिर्फ हवाओं का शोर होता है जो कई बार भयावह लगता है, यहां प्रकृति बहुत बेरहम होती है। मनुष्य ने इन दोनों स्थानों को भी अपना आशियाना बनाया। एकमात्र मानव हर जगह पाया जाने वाला प्राणी है। हां, इन दोनों जगह पनपी सभ्यताओं में जुझारूपन मिलेगा। ये शारीरिक रूप से मजबूत और दृढ़ इरादे वाले होते हैं। सदा प्रकृति से लड़ने को तैयार। मानव के विकास की कहानी रोचक है। इन जगहों पर जीवन सुस्त मगर संघर्षरत है। जबकि मैदान में रहने वाले मानव ने अपनी आदतों के साथ खिलवाड़ कर रखा है। वो बात-बात पर शरीर के लिए आराम के बहाने ढूंढ़ता है। उसने ठंड में हीटर का इंतजाम कर लिया तो गर्मी के लिए एसी-कूलर पैदा कर दिए। और फिर धीरे-धीरे अपने लिये इन्हें जरूरी बना लिया।
क्या वास्तव में इनकी इतनी आवश्यकता है? बिल्कुल नहीं। इसमें भी गर्मी को तो बेवजह ज्यादा बदनाम किया जाता है। सौतेला व्यवहार तो कला-साहित्य ने भी ग्रीष्म ऋतु के साथ कम नहीं किया। वसंत के उल्लास भरे गीत से सीधे वर्षा ऋतु के प्रेम-गीत पर चला गया। लेकिन क्या बीच में ग्रीष्म ऋतु के बिना इनका अस्तित्व संभव था? यही क्यूं, खाने-पीने के शौकीनों ने भी गर्मियों को नाहक बदनाम कर रखा है, जबकि फलों का राजा आम इसी मौसम में आम जनता को दर्शन देता है। जितनी अधिक गर्मी पड़ती है उतना ही इसका स्वाद बढ़ता है। रसीले तरबूज-खरबूज प्रकृति के बेहतरीन तोहफे, इसी मौसम में आते हैं। यही नहीं फलों व सब्जियों की एक लंबी सूची है जो इसी दौरान सृष्टि ने हमें दे रखी है। रसभरी, ब्लैक करंट, स्ट्राबरी, चेरी इतनी विशिष्ट प्रजातियां क्या किसी और मौसम में होती है? काला जंगली बेर और लाल बेर इसी मौसम में होता है। इसमें कई प्राकृतिक गुण हैं। गर्मी को बदनाम करने वालों को जानकार हैरानी होगी कि पहाड़ों पर भी इसी मौसम में सबसे अधिक फल आलू-बुखारा, खुमानी, आड़ू आदि आते हैं। सब्जियों में बड़ी सैम, ब्रोकलि, गाजर, फूलगोभी, ककड़ी-खीरा आदि का स्वाद जो इस मौसम में है अन्य दिनों में नहीं। विज्ञान की बदौलत यूं तो चाहे जब खा लें, लेकिन वो बात नहीं मिलेगी। राजस्थान गर्म प्रदेश है। यहां का काफी बड़ा क्षेत्र रेतीला और रेगिस्तान है। मगर यहां की सभ्यता रंग-बिरंगी है। यहां की संस्कृति में आपको सबसे अधिक रंग मिलेंगे। शायद दूर-दूर तक फैली सफेद रेत के कैनवास पर मानव ने अपने रंगों से भरने की कोशिश की है। अमूमन गर्मी में हल्का खाने को कहा जाता है लेकिन यहां भोजन तीखा और तेज खाया जाता है। हो सकता है यहां भी गर्मी गर्मी को काटती हो? और कुछ नहीं तो कम से कम इंसान के खून में गर्मी तो पैदा कर ही देता है। तभी तो यहां का इतिहास युद्ध में बलिदान व खून से रंगा हुआ है।
हो न हो, सभी को अपने-अपने बचपन की गर्मियां जरूर याद आती हैं। स्कूल से एक लंबी छुट्टी का मिलना, नये कक्षा में जाने का उत्साह। और उससे अधिक दादा-दादी व नान-नानी के पास जाने की मस्ती। खेत-खलिहान देखने का मौका मिलता। कुएं के पानी से नहाने की मटरगश्ती। इन रिश्तों के प्रेम में डूबी गर्मी की छुट्टियों की गर्माहट हर वर्ष याद रहती। और तमाम उम्र रची-बसी रहती। नुक्कड़ पर मिलने वाले बर्फ के रंगीन गोले का मजा, आईस-कैंडी वाले की गली-गली आवाज और गन्ने व बेल का शरबत पी-पीकर नयी पीढ़ी तैयार होती।
प्रकृति का हर सृजन बेहद खूबसूरत है। उसमें विविधता है। हमने एसी की कृत्रिम ठंडी हवा से गर्मी को दूर जरूर कर रखा है लेकिन जाने-अनजाने अपने शरीर को कमजोर बना दिया। इन एसी की ठंडक ने एक तरफ हमारे खून को ठंडा किया है तो दूसरी ओर अपने बाहरी वातावरण को और अधिक गर्म करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हम एक गलत चक्र में फंसते जा रहे हैं। यह हम भूल जाते हैं कि यही कृत्रिम ठंडी बिजली पी रही है जो फिर नदियों को सुखाकर पर्वतों को उजाड़ रही है। वे सभ्यताएं, जो नदियों के किनारे पली-बसी हैं, का जाने क्या हश्र होगा? गंगा-जमुना और इसी तरह की बड़ी नदियों के किनारे रहने वालों को पता होगा कि शाम से यहां पर कितनी मदहोश कर देने वाली हवा बहती है। गर्मियों में छत पर, आंगन में, यहां तक कि मोहल्ले में घर के सामने की सड़कों पर सोने का आनंद ही कुछ और था। जो किसी बंद कमरे में नहीं आ सकता। नयी सभ्यता के नये रंग-ढंग ने संस्कृति की इस बेहद प्राकृतिक व सामूहिक घटनाक्रम व दृश्य को अपने अंदर समेट कर नष्ट कर दिया। हमारे सारे विज्ञानजनित प्रयत्न गर्मी के प्रकोप को वास्तव में किसी न किसी रूप में बढ़ाते ही हैं और हमें उसके आनंद लेने से वंचित करते हैं। स्थिति इतनी बदतर हो चुकी है कि गर्मी को अब पहाड़ों पर भी महसूस किया जा सकता है। मैंने हिमाचल में कुछ वर्ष बिताये हैं। वहां भी, हिमाचल के द्वार-नगर परवाणू ही नहीं, अब तो ऊपर शिमला में भी एसी-कूलर लगाना पड़ता है। ये वो जगह हैं जहां कुछ समय पूर्व तक पंखें भी नहीं होते थे। है न कमाल! हमारी नादानियों का दुष्प्रभाव!! अगर यही रफ्तार रही तो शिमला रेगिस्तान होगा। फिर हम कहां जाएंगे? किस ठंडे प्रदेश में? फ्रिज के ठंडे पाने से बाहर निकलिये, मिट्टी का घड़ा लेकर आएं। एक बार इसका पानी पीकर तो देखें। इसकी सौंधी खुशबू और स्वाद किसी भी ठंडे कोक व पेयजल में नहीं मिल सकता। और पसीना निकलने दीजिए, यकीन मानिए आपकी शारीरिक गंदगी निकल रही है। मुफ्त में। और आप स्वस्थ हो रहे हैं। इसी संदर्भ में एक पौराणिक परंपरा याद आ रही है। हिन्दू धर्म प्रकृति प्रेमी भी है, तभी तो जून की भीषण गर्मी में निर्जला एकादशी का पावन त्योहार आता है। यह उत्सव नहीं। शांत, गरिमापूर्ण और पवित्र पर्व है। समस्त पापों से स्वयं के शुद्धीकरण के लिए। इसी गर्मी के मौसम में, प्राचीन धर्म के गहरे रहस्य को जानने-समझने के लिए हमें एक दिन का उपवास करना होगा। शायद तब हम समझ सकेंगे गर्मी के महत्व को। जो दूर भागने से नहीं पेड़ की छांव के नीचे मिलता है।