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नौटंकी का जमाना है
टेलीविजन पर आने वाले अधिकांश कार्यक्रमों में आजकल वास्तविकता व सत्यता का अभाव होता है। यहां वेशभूषा, बोल-चाल एवं रहन-सहन का असल दुनिया से कोई लेना-देना नहीं। अधिकांश पात्र आम दुनिया के नहीं लगते। घटनाक्रम अटपटे व नाटकीय होते हैं। हां, इन सब में हमारी भावनाओं, संस्कृति व सभ्यता का तड़का लगा होता है। ये हमें सपनों की दुनिया में ले जाते हैं। जहां हंसना, रोना, डरना सब यंत्रवत होता लगता है। तभी तो टीवी का बटन स्विच ऑफ करते ही सब खत्म। कोई असर नहीं। परदे की दुनिया का नाटक समझ आता है और हम अमूमन इस पर व्यंग्य करते मिल जाएंगे। यह सच है कि सिनेमा, रंगमंच या फिर आधुनिक मीडिया में असल जीवन का पुट व अहसास आते ही वो जीवंत हो उठते हैं। कालजयी और क्लासिक्स बन जाते हैं। जीवनपर्यंत याद रहते हैं। वरना इसमें कहीं भी कमी होने पर नौटंकी कहलाने में देर नहीं लगती। इस विश्लेषणात्मक नग्न सत्य को जानते हुए भी टीवी में नौटंकी की भरमार है क्योंकि दर्शक देखने के लिए तैयार है। हैरानी की बात है कि रिएलिटी शो भी साफ-साफ रियल नहीं लगते। यह चर्चा जोर-शोर से उठती भी है। इस पर बात भी बहुत होती है। कागज काले किए जाते हैं। इन्हें देखने वाला तकरीबन हर दर्शक, इस बात को जानता, समझता और मानता भी है फिर भी इसे देखना नहीं छोड़ पाता। उलटा पागल रहता है। क्या नौटंकी-प्र्रेमी जमाना है!!
पूर्व में गांव-कस्बों में मदारी का तमाशा हुआ करता था तो राहगीरों की भीड़ लग जाती थी। बाइस्कोप आने पर बच्चों की टोली टूट पड़ती, कठपुतली का नाच घर-परिवार के साथ देखा जाता। मेले-ठेले में नाचने-गाने वालों को देखने-सुनने मनचले युवा वर्ग पहुंच जाते। राज-दरबार में दरबारी कलाकार चापलूसी में झूठा स्वांग रचकर राजा को प्रसन्न करता। मनोरंजन के इन नाटककारों के दायरे सीमित थे। ये जीवन के हिस्सा जरूर थे मगर जीवन नहीं। समाज में इनका अपना स्थान होता मगर ये खास नहीं बन पाते। आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं। समाज में ये कलाकार की जगह अति महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए हैं। अब वो प्रभावशाली लोगों की तरह रहता और जीता है। उसका हस्तक्षेप अब धर्म, राजनीति व रोजमर्रा के जीवन से लेकर परिवार के भीतर तक है। हम उसके दीवाने हैं और वो अपने अंधे-भक्तों के द्वारा अब पूजा जा रहा है। ऐसे में उसकी नाटकीयता को बढ़ना ही है। तभी तो वो दिनभर नाटक करता है। पढ़े-लिखे भी उसको चाहते हैं। तथाकथित आधुनिक और विकसित सभ्यता में ये दीवानगी अधिक मिलेगी। तभी तो चाहे हमारे देश में गरीबी और भूखमरी बढ़ रही हो मगर हमारा हीरो अमेरिका और यूरोप की वादियों में नाचता-गाता है और करोड़ों कमाता है। राजाओं के जमाने का ये दरबारी कलाकार नाटक करते खुद राजा से अधिक प्रभावशाली बन बैठा। तभी तो राज्य की नीति भी अब तो इन नाटक व नाटककार के मुताबिक बनाई जाने लगी है।
इतना ही नहीं नाटक का बैक्टीरिया अन्य क्षेत्र के लोगों में भी घुस गया है। शिक्षा, राजनीति, कला-साहित्य व अध्यात्मक, सभी क्षेत्र के गुरुओं, शीर्ष जन और नेतृत्व में अमूमन समाज के प्रति समर्पण से अधिक व्यवसायिकता एवं व्यक्तिगत हित साधना ही जीवन का लक्ष्य बन चुका है। इनके लिए स्वयं व अपने परिवार के भौतिक विकास के अतिरिक्त सब बेमानी है। और इसके लिए ये अब दिनभर नाटक करते हैं। ये जो बोलते हैं मात्र डायलॉग होता है। ये शब्दों से खेलते हैं। अपने अघोषित फायदे के लिए गुमराह करते हैं। फिर भी हम इन्हें स्वीकार करते हैं। इनका समर्थन करते हैं। इन्हें पढ़ते व सुनते हैं। उनकी बातों में आते हैं। उनके लिए पलकें बिछाये खड़े रहते हैं।
देश में करोड़ों लोग आज भी भूखे और आसमान की छत के नीचे खुले में सोते हैं। इनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं। कल का भरोसा नहीं। ये जीते क्यों हैं? इन्हें खुद नहीं पता। मर नहीं सकते इसलिए जीने के लिए मजबूर हैं। गरीब के खाने के लिए अनाज नहीं तो क्या हुआ, हमारे नये मध्यमवर्गीय समाज का पेट भरा है अब उसके मनोरंजन व मस्ती के लिए तमाशा जरूरी है, तभी तो रोज नया मजमा लगाया जाता है। खेतों में पानी नहीं है, खेती के लिए बिजली की व्यवस्था नहीं है। तो क्या हुआ, मॉल-प्लाजा व होटल-क्लबों को वातानुकूलित बनाना है, जहां नयी नौटंकी गढ़ी जा सके। और तो और करोड़ों टीवी द्वारा न जाने कितनी बिजली चूसते हुए घर-घर इस तमाशे को देखा जाना है। क्या फर्क पड़ता है जो गरीब की काली रात है, स्टेडियम के तमाशों में आतिशबाजी के द्वारा रोज दीवाली मनाना है। भूखे को भी मदमस्त नशे में चूर तालियां बजाना है। विकास और मनोरंजन के हमारे मैनेजमेंट गुरु नयी-नयी तरकीब के साथ रात की पार्टियों में व्यंजनों के साथ संपर्क सूत्र बढ़ाते हैं। और अगले दिन हर जगह इसकी चर्चा होती है। मुख पृष्ठ पर। इस नौटंकी से नाटककारों को तो भरपूर फायदा हो रहा है और दो का पहाड़ा न जानने वाले लड़के-लड़कियां करोड़ों में खेल रहे हैं। क्या जरूरत है पढ़ने-लिखने की, आंख फोड़ने की, मेहनत करने की, समाज के चिंता की, धर्म के रक्षा की, देश के अभिमान की, अपना दिमाग और शरीर खराब करने की, जब नाटक के मंच पर मात्र ठुमका लगाने व दो-चार चौके-छक्के लगाने से वो मिल रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जय हो नाटक की।
रोम के इतिहास को पढ़कर आज यकीन नहीं होता, और हम हैरान होते हैं, यह जानकार कि विशाल कोलोसियम स्टेडियमों में हृष्टपुष्ट गुलामों व योद्धाओं को जानवरों के साथ लड़ाया जाता था। ग्लेडियेटर बाघ से लड़ते थे। समाज का भद्र वर्ग तालियां बजाता था। यह खूनी लड़ाइयां मात्र मनोरंजन के लिए होती थीं। प्रशासन व राज परिवार इस मर्दानगी को देखने आया करता था। अजीबो-गरीब किस्से पढ़ने और सुनने में आते। यह यकीनन अमानवीय था। लेकिन इसमें भी हम रोमन साम्राज्य के स्थापत्य और अभियांत्रिकी की विश्व विरासत ढूंढ़ते हैं। क्योंकि हम इतिहास में कला और मानवतावाद की बातें कहकर स्वयं को अति आधुनिक होने का लबादा ओढ़ते है, बुद्धिजीवी होने का बेहतरीन नाटक करते हैं और इसे पुराना स्वर्णिम युग कहकर भ्रमित करते हैं। कितना फर्क आया है इन दो हजार सालों में? स्थिति और भयावह हुई है। रोम की अमानवीय नौटंकी अब हर शहरों में अत्यधिक लोकप्रिय है। ताली बजाने वाला वर्ग आज गली-गली खड़ा है। भोजन नहीं तो क्या हुआ नौटंकी तो देखना जरूरी है ही। इस नाटक के सूत्रधार, समाज के प्रमुख लोग, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से, पूर्व के राजपरिवार की तरह आज भी आकर्षक और नामी हैं। ये समाज के मालिक हैं। उन्हें नाटक कला की बारीकियां पता है, ये दर्शक को बेवकूफ बनाना जानते हैं। जनता को भ्रमित करने के लिए बुद्धिजीवी पाल लिये गए हैं। समूचा गिरोह पूर्व से अधिक शक्तिशाली व तिकड़मबाज हैं। हां, बस फर्क इतना आया है कि नाटक करने वालों को भी इसका अच्छा भुगतान मिलने लगा है। और वे भी समाज के उच्च वर्ग में दाखिल हो चुके हैं। अब वो भी इस नाटक में शामिल नहीं भागीदार हैं। है न आधुनिक नाटक का कमाल?
यही सब कारण है जो वर्तमान युग को नाटक युग कहा जाना चाहिए। आपको जितना अच्छा नाटक करना आता है आप उतने सफल होंगे और कहलाए जाएंगे। फिर चाहे जिस भी क्षेत्र में हों। आज खेल के मैदान में भी आप जितने बड़े नाटकबाज, हैं उतने ही सफल हैं। यहां अब खेल कम ग्लैमर ज्यादा चलता है। यही नहीं राजनीति भी नाटकों का मंच बन चुकी है। आप कितनी होशियारी से भीड़ को बेवकूफ बना सकते हैं। ये कला आनी चाहिए। आप भावनाओं से जितना मर्जी खेलें, उन्हें बेवकूफ बनाएं, भीड़ तैयार है। वे तो नाटक पर तालियां बजाने के लिए पहले से अधिक सक्रिय हैं। व्यवसाय में भी आपको नाटककार होना चाहिए। वरना व्यवसाय को सफल बनाने के लिए भी लोकप्रिय नटों की सहायता लेनी पड़ती है। आज के युग में वैज्ञानिक शोध का नाटक तक किया जा सकता है। चॉकलेट-चाय से लेकर शराब के एक पैग को किस अदा से स्वास्थ्य के लिए अच्छा घोषित कर दिया जाए, पता ही नहीं चलता। गरीबी पर आंसू भी नाटक है और संवेदनाओं के खरीद-फरोख्त का नाटक आजकल सर्वाधिक बिकाऊ है। एक कंपनी खोल लीजिए और सिर्फ गरीब, पिछड़े, महिला व बच्चों के नाम पर नाटक कीजिए फिर पैसों की बरसात देखिए। ऑफिस में वही कर्मचारी अधिकारी सफल हैं जो चापलूसी का नाटक करना जानता है। घर-परिवार में आपसी संबंधों में नाटक है। बच्चे अभिभावकों को थैंक्यू कहकर आदर करने का नाटक करते हैं तो मां-बाप भी बच्चों के साथ प्यार का नाटक करने लग पड़े हैं। शादी और जन्म-मरण जैसे कर्मकांड भी अब नाटक बना दिए गए हैं। धर्म के क्षेत्र में भी कम नाटक नहीं। कमजोर और भयभीत भक्त से नाटक कराते पुजारी को देखा जा सकता है।
इन नाटकबाजों के गुण क्या है? ये खुद कुछ नहीं बोलते। ये वही बोलते हैं जिसका चरित्र वो उस वक्त निभा रहे होते हैं। अर्थात चरित्र, स्थान और नाम बदल जाने से उनका वक्तव्य बदल जाना भी स्वाभाविक है। है न नाटकीय युग? ये चेहरे से उजले होने चाहिए फिर मन मैला हो तो कोई बात नहीं। इनका अपना कुछ नहीं होता। ये समय के अनुसार हंसते हैं और आवश्यकतानुसार रोते हैं। इनके छींकने से सर्दी की महामारी फैल जाती है। इनका असली चेहरा किसी को नहीं पता होता। ये एक नहीं बहुरूपीय होते हैं। ये देखने में सुंदर व आकर्षक होते हैं। तभी तो वे जमाने गए जब कलाकार, लेखक, वैज्ञानिक पागल दिखाई देते थे, अब इन्हें भी पुरस्कार लेने से पूर्व पार्लर और ब्रांडेड कपड़े की जरूरत पड़ती है। सभी को अपने चेहरे की साज-सज्जा व लिपापोती से मनमोहक व खूबसूरत बनना जरूरी है। चूंकि आज का हरेक सफल व्यक्ति स्वप्निल कलाकार है। अब चूंकि ये असल नहीं तो इनका हकीकत से क्या लेना-देना? यह तो हवा में आते हैं और हवा में कहीं निकल जाते है। ये एक रंगमंच से दूसरे रंगमंच में जाकर एक बार फिर से किसी दूसरी भीड़ को अपने नाटक से मोहित कर भ्रमित करने का खेल खेल रहे होते हैं।
कमाल की है यह दुनिया। कमाल का है यह आधुनिक काल। आश्चर्य है बढ़ते हुए ज्ञान पर कि सब कुछ जानते हुए भी तुरंत ताली बजाने वालों की भीड़ भी बढ़ती जा रही है। यह वही भीड़ है जिसमें अनपढ़ गंवार से लेकर बड़े से बड़ा डिग्री वाला भी दोनों हाथों से तालिया बजाते हुए टकटकी आंखों से ताकता हुआ मिल जाएगा। शिक्षा व सूचना का दावा करने वाले युग में समझ उसी अनुपात में कम हुई है। हैरानी तो तब होती है जब कटु सत्य बोलने वालों को शक की निगाह से देखते हुए बेवकूफ, पिछड़ा ओर विकास विरोधी समझा जाता है। ठीक ही तो है, इस युग में नाटक इस तरीके से खेला जा रहा है कि दर्शक मोहित होकर अपनी सुधबुध और जीवन भूल चुके। यही तो होता है एक सफल नाटक के प्रस्तुतीकरण में, जो इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है।