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स्वतंत्रता के मायने
कल्पना कीजिए एक स्वतंत्र देश का स्वतंत्र नागरिक सड़क पर गाड़ी चलाते समय अपनी वाहन की गति और दिशा को भी स्वतंत्र कर दे तो क्या होगा? अनियंत्रित गति व दिशाहीन होने पर सड़क पर किसी बड़ी दुर्घटना के होने से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में वो सड़क पर सोते हुए गरीब लोगों को, चलते हुए राहगीरों को कुचलता हुआ आगे बढ़ सकता है तो खुद पेड़ या किसी पोल से टकराकर, नदी-नाले में गिरकर, मृत्यु को भी प्राप्त हो सकता है। स्वतंत्र होने के नाते वो स्वतंत्र रूप से गाड़ी चलाने का तो अधिकारी है मगर ऐसे में या तो दूसरे की स्वतंत्रता समाप्त होती है या फिर वह स्वयं पूरी तरह दुनिया से स्वतंत्र हो जाता है। मरने के बाद किसने देखा है और दूसरे के माध्यम से दुःख-दर्द को समझना सबके बस का नहीं। इसका अहसास उसे तभी हो सकता है जब वो किसी और की गाड़ी के द्वारा कुचला गया हो और जिंदा भी रहे। आगे चलते हैं, अगर वो यातायात के नियमों का पालन न करते हुए, स्वतंत्र होकर, सड़क के एक तरफ से नियमानुसार नहीं चला तो सामने से आने वाली गाड़ियों से टकरा जाएगा। हो सकता है व्यस्त चौराहे पर लालबत्ती के नियम को न माने, चूंकि वह तो स्वतंत्र है, तो वहां चौक पर एक भीषण दुर्घटना हो सकती है। और उसकी टांग भी टूट सकती है। इन्हीं सब कारणों से गाड़ी में ब्रेक दिए गए हैं। संक्षिप्त में कहें तो यहां पर गाड़ी चलाने की स्वतंत्रता को सीमित व संतुलित किया जाना जरूरी है। यही कारण है जो, एक व्यवस्था बनाकर, नियमों के अंतर्गत, गाड़ी चलाने की समस्त क्रियाओं को नियंत्रित एवं नियमित किया जाता है। जिससे सिर्फ किसी एक की स्वतंत्रता ही नहीं सभी वाहन चालकों की स्वतंत्रता बरकरार रहे। यही सिद्धांत किसी भी अन्य व्यवस्था को चलाने के लिए भी आवश्यक है।
इसके आगे की परिकल्पना करें। प्रत्येक स्वतंत्र नागरिक को अपनी स्वतंत्र विचारधारा की स्वतंत्रता है। मगर इसे किसी दूसरे पर नहीं लादा जा सकता। क्योंकि दूसरा भी तो अपने विचारों के लिए स्वतंत्र है। अर्थात हर एक को अपने विचारों को भी अपने तक ही सीमित रखना पड़ता है। एक और उदाहरण, हर आदमी के मन की बात सुनी जाए तो वह अपने साथ किए गए अत्यचारों का बदला लेने के लिए स्वतंत्रता चाहता है। तो क्या वह अपने दुश्मनों को, नापसंद आने वाले लोगों का, सिर फोड़ने के लिए, कत्ल करने के लिए स्वतंत्र है? नहीं। इससे तो समाज में अराजकता बढ़ेगी। इसलिए पुलिस और न्यायालय की व्यवस्था की गई है। परीक्षाओं में क्या छात्र किसी भी तरह की नकल करने के लिए स्वतंत्र किया जा सकता है? कल्पना करें, अगर उसे पूरी तरह स्वतंत्र कर दिया जाए, उसे प्रश्नपत्र की पूर्व जानकारी के साथ-साथ मनपसंद प्रोफेसर के साथ बैठने की इजाजत दे दी जाए, तो क्या होगा? रईस बच्चे, जो चाहे पा लेंगे और कइयों को एक जैसे नंबर प्राप्त होंगे। कई तो बिना पढ़े ही अव्वल कहलाएंगे और फिर परीक्षा का औचित्य ही खत्म हो जाएगा। ऐसे में एक अनार सौ बीमार होने पर चुनाव कैसे होगा? ट्रेड यूनियन अपने हकों की बात करती है। सोचिए कि अगर उसे पूरी तरह स्वतंत्र कर दिया जाए? अगर हर कर्मचारी/अधिकारी अपनी इच्छानुसार कार्य करने लगे तो कारखानों में उत्पादन गिर जाएगा। क्योंकि अधिकांश लोग काम करना पसंद नहीं करेंगे, अमूमन एक-दूसरे पर टरकाएंगे। कार्यालयों में निर्णय नहीं हो पाएंगे। चूंकि सब उसे मानने न मानने के लिए स्वतंत्र होंगे। ऐसे में क्या दृश्य होगा? यकीनन यह मजेदार और मछली बाजार की तरह होना चाहिए। प्रोडक्ट की क्वालिटी का तो सत्यानाश होगा ही, क्योंकि गुणवत्ता के लिए अनुशासित कर्मचारियों की टीम चाहिए, उच्छृंखल अव्यवहारिक जन की भीड़ नहीं। यथार्थ में, मैनेजमेंट के विरोध में, अपने अधिकार के लिए लड़ाई लड़ने वाले ट्रेड यूनियन के अंदर भी, व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों की आवश्यकता होती है।
पूर्ण स्वतंत्रता तो सृष्टि में भी नहीं है। नदियों को किनारों ने सीमित कर रखा है तो सागर के भी तट हैं। पहाड़ों की ऊंचाइयां भी नापी जा सकती है। पंछी स्वतंत्र तो लगते हैं लेकिन एक सीमा तक ही उड़ सकते हैं। कल्पना करें कि समुद्र को स्वतंत्र कर दिया जाए तो क्या होगा? जहां बरसों में आने वाले छोटे-मोटे तूफान और चक्रवात तबाही मचा देते हैं, ऐसे में तो समुद्र जमीन को निगल जाएगा। यहां इसकी कल्पना मात्र काफी होगी। नदी द्वारा थोड़ी-सी स्वतंत्रता लेने से बाढ़ आ जाती है। जो अपने अंदर आसपास की समूची बस्ती को बहाकर ले जाती है। फिर वो बूढ़ा-बच्चा-कमजोर या ताकतवर नहीं देखती। सबसे महत्वपूर्ण, पृथ्वी अपने केंद्र बिंदु के चारों ओर वर्तमान गति से अधिक तीव्रता से घूमने लगे तो मनुष्य जाति ही नहीं संपूर्ण सृष्टि का सत्यनाश हो जाएगा। ब्रह्मांड भी संतुलित-संयमित है तथा तारे एक-दूसरे के द्वारा नियंत्रित। इन ग्रह-नक्षत्रों के पूरी तरह स्वतंत्र होते ही इसे छितर-बितर करके नष्ट कर दिया जाता है। वरना ये किसी और ग्रह से टकराकर समूची आकाशगंगा में मुश्किल पैदा कर सकते हैं। अर्थात प्रत्येक व्यवस्था के अंदर हर एक की स्वतंत्रता सीमित व परिभाषित होनी चाहिए। उससे बाहर जाते ही वह दूसरे की स्वतंत्रता में विरोध व अवरोध खड़ा करने लगता है। और उच्छृंखल होकर अपनी ही व्यवस्था को चौपट करने लग पड़ता है।
आज हमारे समाज में बूढ़ों से लेकर छोटे बच्चे भी पूर्णतः स्वतंत्र होना चाहते हैं। लोग हर बात पर स्वतंत्रता की बात करते हैं। सवाल उठता है कि क्या इससे समाज, देश, विश्व व प्रकृति की व्यवस्था चल पाएगी? मीडिया पूरी तरह से स्वतंत्र होना चाहता है। फिर चाहे उसे अपनी टीआरपी के लिए कुछ भी दिखाना पड़े। झूठ के लिए, किसी भी हद तक जाने के लिए उसे स्वतंत्रता चाहिए। अपनी उन्मुक्तता और मदमस्त-चाल पर थोड़ी-सी भी रुकावट उसे तंग करती है। गिने-चुने रईस पैसे कमाने के क्षेत्र में हर तरह से स्वतंत्र होना चाहते हैं। वो उस सीमा तक जाना चाहते हैं जहां समाज का पूरा पैसा अकेले के पास हो। अर्थात वो दूसरे की संपत्ति को भी हथियाना चाहते हैं। औरतें आजादी की बात करती हैं तो आदमी को उन्मुक्त औरत पसंद आती है। तन से भी और मन से भी। लेकिन फिर शादी करने की बात आते ही पारिवारिक शांत-सुसंस्कृत कन्या की तालाश प्रारंभ हो जाती है। चूंकि परिवार बंधनों से बंधा होता है। लेकिन आज के बच्चे मां-बाप से स्वतंत्र होना चाहते हैं, होश संभालने के साथ ही। राजनीतिक पार्टियां जनता से स्वतंत्र होनी चाहती हैं, पूरी तरह, चुनाव में जीत के साथ ही। चोर सिपाही से स्वतंत्र होना चाहता है और सिपाही न्यायालय से। न्यायपालिका तो स्वतंत्र है ही, होना भी चाहिए, मगर यहां भी संविधान उसे मर्यादित करता है। लेकिन फिर माननीय न्यायाधीश की बात आते ही स्वतंत्रता पर तर्क-वितर्क शुरू हो जाते हैं। उधर वकील भी अपनी स्वतंत्रता के लिए बेहद जागरूक हैं। कर्मचारी अधिकारी से स्वतंत्र होना चाहता है और अधिकारी किसी भी तरह के अंकुश से स्वतंत्र रहना चाहता है। वह मंत्री से स्वतंत्र होना चाहता है, मंत्री केबिनेट से और केबिनेट संसद से। संसद तो स्वतंत्र है ही, मगर कुछ सुनिश्चित सालों के लिए। वरना फिर चुनाव। संसद सदस्य इस बार-बार के चुनाव से स्वतंत्र होना चाहता है। लेखक, कलाकार, चित्रकार समाज की प्रतिबद्धता से स्वतंत्र होना चाहता है। पति अपनी पत्नी से स्वतंत्र होने के जुगाड़ में रहता है तो बहुओं ने सास से स्वतंत्र होने के लिए सदियों तक संघर्ष किया। और अब भी कर रही हैं। और अब वे परिवार के बंधन से स्वतंत्र होना चाहती हैं। हवाई जहाज उड़ाने वाला पायलट एयर ट्रैफिक से स्वतंत्र होना चाहता है। लेट हो रही ट्रेन के चालक के साथ-साथ पैसेंजर भी सिग्नल से स्वतंत्र हो जाना चाहते हैं जबकि वे जानते हैं कि जल्दी में दुर्घटना को टाला नहीं जा सकता। छात्र शिक्षक से, शिक्षक प्रिंसिपल से और प्रिंसिपल शिक्षा विभाग से स्वतंत्र होना चाहता है। पत्रकार संपादक से, संपादक मालिक से मगर मालिक इन दोनों की स्वतंत्रता को खत्म करते हुए विज्ञापनदाताओं से नियंत्रित होता है। व्यापारिक हित के सर्वोपरि होते ही प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। अब क्या करें, प्रेस और विज्ञापनदाता कंपनी में से कोई एक ही स्वतंत्र रह सकता है।
जहां देखो वहीं, जहां नजर दौड़ाओ, हर एक पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जागरूक है और प्रयासरत भी। यह कितना बेहतरीन शब्द है कि हर क्षेत्र में इसका स्वतंत्र रूप से उपयोग किया जाता है। विरोध करने वाले हर अच्छे-बुरे काम को रोकने की स्वतंत्रता चाहते हैं। इन सब की स्वतंत्रता में थोड़ी-सी भी रुकावट करने पर चिल्लाचौंट की जाती है, संघर्ष किया जाता है। तभी तो किसान बिजली-पानी के लिए स्वतंत्र होना चाहता है तो व्यापारी रेट अपने हिसाब से लगाने के लिए स्वतंत्र बनना चाहता है। बाजार तो स्वतंत्रता की परिभाषा ही अपने हिसाब से गढ़ता है। उसके लिए तो बेचने की पूरी तरह से छूट होनी चाहिए। स्वतंत्रता होनी चाहिए। फिर चाहे उसमें चोरी हो, छीना-झपटी हो, दगाबाजी हो, जमाखोरी हो, झूठ हो, फरेब हो। उसे व्यापार करना है, माल बेचना है, व्यवसाय और विकास के नाम पर इस क्षेत्र में वो पूरी स्वतंत्रता चाहता है। वो उपभोक्ता के जेब को अधिकारपूर्वक लूटने के लिए स्वतंत्र होना चाहता है। तभी तो टैक्स तक को अपनी स्वतंत्रता में एक दखल के रूप में लेता है। और जरा-सा दबाव आने पर सड़क पर आ जाता है। वरना कालाबाजारी के लिए तो वह स्वतंत्र है ही। वैसे तो ग्राहक अपनी स्वतंत्रता चाहता है, मगर व्यापारी उसकी स्वतंत्र बुद्धि को ही सीमित कर देना चाहता है। सरकार इन दोनों के द्वंद्व के बीच अपना रोल अदा करने से स्वतंत्र होना चाहती है। क्योंकि एक से वोट तो दूसरे से नोट मिलते हैं। संक्षिप्त में, हर कोई स्वतंत्र होना चाहता है। प्रथम दृष्टि में भी स्वतंत्र अर्थात स्व का तंत्र मतलब सभी की अपनी-अपनी व्यवस्था। क्या ऐसा कुछ होने पर, समाज, राष्ट्र यहां तक की परिवार का अस्तित्व रह जाएगा? पता नहीं।
सवाल उठता है, ईश्वर पूरी तरह से स्वतंत्र है कि नहीं? इसका जवाब तो पता नहीं, लेकिन धर्म और धर्मगुरुओं को संपूर्ण स्वतंत्रता चाहिए। कल्पना करते हैं, ऐसी सृष्टि की, जिसमें सब कुछ स्वतंत्र हो। शत-प्रतिशत। मगर हमारे सोच व कल्पना की भी सीमाएं हैं, वे स्वतंत्र होते हुए भी एक हद तक ही सोच पाती हैं और थक कर शांत हो जाती हैं। ऐसी स्वतंत्रता तो जीवन से मुक्त होने पर ही सोची जा सकती है।