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समस्याओं के मूल में है जनसंख्या विस्फोट

होश संभालने के बाद पहली बार मुंबई जाने पर एक बात ने पहले तो विशेष रूप से आकर्षित किया, मगर बाद में फिर परेशान किया था। वहां बात-बात पर लाइन लग जाती। बस पकड़ने के लिए बस-स्टाप पर लोग कतार में खड़े रहते, शौचालय के बाहर लाइन, हर तरह के टिकटघर की अपनी लाइन, दुकान में सामान खरीदने वालों की भीड़ होने पर खरीदार तुरंत एक के पीछे एक हो जाते। यही नहीं धार्मिक स्थलों पर अनुयायियों की व्यवस्थित कतार हर जगह देखी जा सकती थी। व्यावसायिक नजरिये से देखें तो टैक्सी स्टैंड में टैक्सी भी कतार में खड़ी होती। पहले पहल तो यह सब सुविधापूर्ण और अनुशासित लगता। भौतिक चकाचौंध मोहित करती। मगर स्टेशन पहुंचकर सारा अनुभव कटु सत्य में परिवर्तित हो जाता, जब लोकल ट्रेन में चढ़ने-उतरने के दौरान धक्का-मुक्की में लोग एक-दूसरे को रगड़ कर पीस देते। यह बेरहम भीड़ होती जिसको जिंदा इंसान से कोई सरोकार नहीं। सेकेंड में लोकल के छूटने का डर आदमी को मशीन बना देता और सारी इंसानियत भीड़ के पैरों से कुचल दी जाती। यह प्रमाणित करता कि अपनी सुविधानुसार वहां के लोगों ने इस कतार वाली अनुशासन पद्धति को अपनाया है। समयानुसार यह उनकी मजबूरी है, चाहत नहीं। न ही यह उनका स्वाभाविक गुण है। तभी तो इंसानों की भीड़ घबराहट पैदा करती। चारों ओर जहां भी नजर जाती मानवीय समुद्र दिखाई देता। दूसरे शहरों से जाने वाले लोगों के लिए इतनी बड़ी जनसंख्या में रह पाना एक समस्या होती। हर चीज के लिए वहां संघर्ष करना पड़ता। ऑफिस और घरों के बीच घंटों के हिसाब से दूरी होती। दाल-रोटी से लेकर रात को फुटपाथ पर सोने के लिए भी मारामारी करनी पड़ती। चैन कहां? इसके कारण ही कई लोग घबराकर वापस भाग जाते। और जो नहीं जा पाते इस भीड़ में गुम हो जाते। चमकती दुनिया के सफल सितारों की एक-दो कहानियों को यहां परिकथा मान लेना ही उचित होगा। वरना आम जीवन यहां कतार में अपनी बारी के इंतजार में ही समाप्त हो जाता। मैंने कई बार वहां के स्वादिष्ट स्थानीय व्यंजन, वड़ा-पॉव के लिए भी लंबी लाइन लगते देखी है। अपना नंबर आते-आते कई बार यह समाप्त हो जाता फिर भूखे पेट हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं रह जाता। कोई सुनने को तैयार नहीं और दूसरी जगह फिर पंक्ति में खड़े हो जाओ। यह दीगर बात है कि लोग इस भीषण मशीनी जीवन के आदी हो जाते। और उसमे ही खुशियां ढूंढ़ लेते। मगर जीवन इसमें होता ही नहीं। अगर विश्लेषण करें तो सरल शब्दों में इन सब समस्याओं के पीछे मूल कारण उसकी आबादी ही है।

दो-तीन दशक पूर्व, उपरोक्त दृश्य आम शहरों को छोड़ अन्य महानगरों में भी दिखाई नहीं देता था। जीवन शांत, सरल, सहज और सुलभ होता था। मगर इस तरह के हालात तकरीबन हर जगह अब बन चुके हैं। यही नहीं, दिन-प्रतिदिन स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। महानगर विकराल रूप धारण कर चुके हैं। शहरों में पहले से रहने वाले, नये आने वालों को दोषी करार देते हैं। मगर गांव-कस्बे में भी हालात सामान्य नहीं। विकसित राष्ट्र भी बाहर से आने वालों के विरोध में तीखी टिप्पणियां करते देखे जा सकते हैं। आर्थिक व विकास की असमानता की बात भी उभरती है। यह एक अलग वाद-विवाद का विषय हो सकता है मगर इन सबके मूल में है जनसंख्या का बेहिसाब बढ़ना। फिर चाहे वो दुनिया के किसी भी भाग में हो रहा हो, उसका असर विश्वस्तरीय होता है। दबाव चारों ओर फैलता है। अचानक पिछले कुछ वर्षों में भीड़ इतनी बढ़ चुकी है कि अब कहीं भी कतार वाली वो बात नहीं रही। हर जगह आपाधापी, अव्यवस्था, छीना-झपटी आम बात हो चुकी है। रेलवे रिजर्वेशन काउंटर से लेकर छोटे बच्चों के बालक मंदिर कक्षा में दाखिला कराने के लिए भी किसी-किसी स्कूलों में घंटों लाइनों में लगना पड़ता है। यहां लाठीचार्ज होना अब आम है। प्रसव के लिए पहले से कई अस्पतालों में कमरा आरक्षित करवा लिया जाता है। हालत इतने बिगड़ चुके हैं कि कई बार अंतिम संस्कार के लिए शव को भी इंतजार करना पड़ता है। और कई बार तो शव-यात्रा में मृतक के साथ चलने वाले उसके दोस्त-यार परिवार वालों में से कई अंतिम संस्कार के पूर्व ही श्मशानघाट से वापस चल देते हैं। अब वो भी क्या करें, अभी उन्हें जिंदा रहने के लिए हर कदम पर संघर्ष करना है चूंकि इंसान की भीड़ हर एक को राह में कुचलने के लिए तैयार खड़ी है।

कहने वाले कह सकते हैं कि जनसंख्या अपनी गति से बढ़ रही है। यह सब स्वाभाविक और प्राकृतिक है। मगर यहां मृत्यु-दर व जन्म-दर के आंकड़ों में फंसने की आवश्यकता नहीं, जो दिखाई दे रहा है उसे प्रमाण की जरूरत है क्या? कस्बे शहरों में बदल चुके हैं और शहर महानगरों की तरह चारों दिशाओं में तेजी से फैल रहे हैं। बस और रेलगाड़ी से सफर के दौरान किसी भी दिशा में चले जाएं खेतों-खलिहानों को मकानों व कॉलोनी में परिवर्तित होते देख सकते हैं। गति इतनी तीव्र है कि कुछ वर्षों में ही शहर के आसपास के हरे-भरे खेत अचानक कंक्रीट जंगल में बदल जाते हैं। अब जब इंसान का एक बच्चा पैदा हो जाता है तो रहने के लिए उसे मकान तो चाहिए, चलने-फिरने के लिए सड़क भी चाहिए, तभी तो जहां देखो वहां निर्माण कार्य, सड़कें चौड़ी की जा रही हैं, गाड़ियां बढ़ रही हैं। सभी को शिक्षित करना है तो स्कूल-कॉलेज की संख्या को भी बढ़ाना होगा। बढ़ती भीड़ ही सही मगर सभी को मूलभूत आवश्यकताएं तो मुहैया करवाना ही पड़ेगा तो उत्पादन के लिए कारखानों की जरूरत भी पड़ेगी। और फिर बेरोजगारी दूर करने के लिए नौकरियों की आवश्यकता भी होगी। अर्थात जनसंख्या वृद्धि की तरह ही उसी गति से नौकरी पैदा करने की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। फलस्वरूप बाजार की गिरफ्त में आकर विकास और विकास दर की बातें की जा रही हैं। मगर ये भी कब तक और कहां तक? बहरहाल, जंगलों को काटा जा रहा है जिससे कि वहां कारखाने लगाए जा सकें। होटल, अस्पताल, मॉल और कॉलेज खोले जा सकें। शिशु के पैदा होने के बाद उसे जिंदा रहने के लिए अभी तक तो हवा मुफ्त है, आगे का भरोसा नहीं, पिछले कुछ वर्षों में ही पानी ने कैसे-कैसे रंग बदले हैं, किसी से छिपा नहीं। एक तरफ जनसंख्या के तीव्र गति से बढ़ने से आवश्यक दैनिक चीजों की आवश्यकता बढ़ रही है। दूसरी तरफ प्राकृतिक संसाधनों की तेजी से कमी आती जा रही है। अर्थात मांग बढ़ रही है और आपूर्ति कम हो रही है। तो फिर हा-हाकार तो मचेगा ही। तो क्या हुआ, मनोरंजन-मस्ती के द्वारा, क्रिकेट-फुटबाल का तमाशा से लेकर फिल्म और फैशन की धुन में इसको दबा दिया जाएगा। भीड़ को जैसा चाहो इस्तेमाल करो। बदले में उनकी इच्छाओं को जाग्रत कराओ। परिणामस्वरूप मांग बढ़ेगी और फिर चाहत बढ़ेगी। यही तो बाजार को चाहिए। जहां तक रही बात वर्तमान में समस्या के हल की तो प्रकृति का दोहन बढ़ा दो। मगर मुर्गी सोने का अंडा कब तक देगी? तो फिर क्या हुआ, हमें तो आज में जीना है, कहावत-किस्सों का क्या करना, तभी तो एक लोककथा की शिक्षा के विपरीत सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को काटने से भी लोगों को परहेज नहीं। फिर चाहे कल भूखा सोना पड़े। है न कमाल का आदमी?!

हम सब अपनी समस्याओं के मूल में स्थित इस जनसंख्या विस्फोट को अच्छी तरह से समझते और जानते हैं। मगर सबकी अपनी-अपनी सोच है। अधिकांश जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं। इतना सब होने के बावजूद कइयों को अपने समूह, वर्ग, जाति, धर्म और उससे संबंधित लोगों के घटते-बढ़ते आंकड़े की चिंता है। बुद्धिमानी पर तरस तो तब आता है जब इस बढ़ती भीड़ को भविष्य की ऊर्जा कहा जाता है। तर्क यहां तक दिये जाते हैं कि अगर किसी एक देश ने या किसी विशेष समूह ने अकेले जनसंख्या को नियंत्रित किया तो दूसरा वर्ग अपनी जनसंख्या बढ़ाकर आप पर हावी हो सकता है। यह सच है कि कोई भी देश-समाज जनसंख्या के अकेले नियंत्रण से इस समस्या से छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता। उसकी सीमाओं पर दबाव बढ़ेगा, घुसपैठ बढ़ेगी। सामाजिक-आर्थिक असंतुलन से दूसरी दिक्कते पैदा होंगी। अर्थात संपूर्ण विश्व को एक साथ बैठकर इस पर अमल करना होगा। मगर जिस युग में एक परिवार साथ बैठकर किसी भी मुद्दे पर एकमत नहीं हो पाता वहां यह कल्पना हास्यास्पद लगती है। पूर्व में अशिक्षा इसका कारण बताया जाता था, मगर साक्षरता के साथ समस्या घटने की बजाय बढ़ रही हैं। पढ़े-लिखे वर्ग में समझदारी उतनी ही कम हो रही है। और अंत में समस्या चिंतनीय और आत्मघाती बनती जा रही है।

प्रकृति में संतुलन की व्यवस्था अद्भुत है। जनन और प्रजनन में जानवर भी संतुलित व्यवहार करते हुए देखे जा सकते हैं। वही ज्ञान की बड़ी-बड़ी बात करने वाले इंसान ने असल में जानवरों से भी बदतर व्यवहारिकता का प्रदर्शन किया है। उसे इस बात का अहसास नहीं कि वह अपने लिये कितनी बड़ी समस्या को हर पल हर समय हर बच्चे के साथ पैदा कर रहा है।

बच्चे भगवान का रूप होते हैं। मगर उन्हें इस दुनिया में लाने के लिए हम और केवल हम जिम्मेदार हैं। पूछा जाना चाहिए कि हम उन्हें किसलिए ला रहे हैं? सहवास में प्रकृति ने अलौकिक आनंद भी दिया है। कहीं हम अपने क्षणिक सुख के लिए एक पूरा कष्टमय जीवन तो नहीं पैदा कर रहे? अगर हमने समय रहते इस समस्या का, साहसिक उदाहरण पेश करते हुए, एक समुचित नियंत्रित व्यवस्था नहीं की तो प्रकृति अपना पाठ पढ़ाने से बाज नहीं आएगी। आदमी ने लोककथाएं बनाई बहुत हैं तो युगों-युगों से सुनी भी हैं, मगर उसे कभी अपने जीवन में उतारा नहीं। तभी तो वह जिस डाली पर बैठता है उसी को काटने लग पड़ता है। यही क्यूं, भस्मासुर की कहानी लोगों को याद तो होनी ही चाहिए। अपनी शक्ति के अहम्‌ का शिकार इस शक्तिशाली चरित्र को सबक सिखाने में ज्यादा वक्त नहीं लगा था। हम अपने लिए अपना नर्क यहीं बना रहे हैं। हमने विज्ञान के सहारे अपने जीवन को लंबा तो कर लिया मगर जीवन के रस को निचोड़ दिया। यहां लोगों के दिल तो धड़क रहे हैं मगर उसमें जीवन का स्पंदन नहीं। खाद से फूल तो पैदा कर दिए मगर उनमें महक कहां? मन की आवाज को सुनने का वक्त कहां रहा वो तो ट्रैफिक की चिल्ल-पों और भीड़ की तालियों में डूबकर शराब के नशे में बह चुका है। एक समय ऐसा भी आएगा जब नकली भोजन, इतनी बड़ी मात्रा में बनाना, विज्ञान के लिए भी संभव नहीं होगा। यह सोचकर निष्क्रिय नहीं होना चाहिए कि हमारा समय तो गुजर ही जाएगा। हम यकीनन विस्फोटक काल में प्रवेश कर चुके हैं। क्या यह सच नहीं कि हमारा वर्तमान किसी भी तरह से मानवीय जीवन-सा नहीं रह गया और भविष्य कीड़े-मकोड़े की तरह बनता नजर आ रहा है। असल में इस भीड़ और कतार में हमारी भावना कब समाप्त हो जाती है पता ही नहीं चलता। कभी ठहरकर सोचने की फुर्सत ही कहां?