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अपने ही शहर में अनजान
करीब 25 साल के लंबे अंतराल के बाद अपने शहर में जाना हुआ था। यहां युवा जीवन के महत्वपूर्ण पांच वर्ष बिताये थे। भोपाल के मौलाना आजाद इंजीनियरिंग कॉलेज से शिक्षा ग्रहण की थी। यह मध्य भारत का एक प्रमुख तकनीकी शिक्षण संस्थान है। यह कहना अनुचित न होगा कि यहां दाखिला कड़ी प्रतिस्पर्द्धा के बाद ही मिलता है और बेहद पढ़ाकू व किस्मत वाले छात्र ही इन संस्थाओं में पहुंच पाते हैं। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं का स्तर और अधिक तीव्र हुआ है और इस तरह के प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रवेश पाना दिन-प्रतिदिन छात्रों के लिए एक सपने से कम नहीं। स्कूल व कक्षाओं में अव्वल रहने वाले इन छात्रों में भी अतिरिक्त ऊर्जा, मस्ती, सपने व उमंग का होना स्वाभाविक और नैसर्गिक है। युवावस्था में इसे उम्र का तकाजा भी कहा जा सकता है। ऊपर से हॉस्टल में रहने वालों का छात्र जीवन तो विशेष होता ही है। सबकी अपनी-अपनी कहानियां, जवानी के उन्मुक्त क्षणों की स्वप्निल दुनिया में कई रंग भरे होते हैं। चुनौतियां और कठिनाइयां भी हैं। दूसरी ओर, छोटी उम्र अर्थात अनुभवहीनता, तो फिर अपरिपक्वता तो होगी ही। ऐसे में घर के अनुशासित माहौल से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होते ही जीवन कभी-कभी अनियंत्रित हो जाता है। स्वतंत्रता और उच्छृंखलता में बहुत बारीक अंतर होता है। और इसी को पहचानने में कई बार चूक हो जाती है। इसे बचपन की नादानी कहकर नहीं बचा जा सकता। संपूर्ण स्वतंत्रता कई बार सर्वनाश का कारण भी बन जाती है। खैर, जो सवारी करते हैं वही खेल के मैदान में जीत भी हासिल करते हैं और अमूमन हॉस्टल जीवन से छात्र मजबूत व योग्य नागरिक बनकर बाहर निकलते हैं।
इतने वर्षों के बाद जाने के बावजूद शहर की मुख्य सड़कें ही नहीं कॉलेज के आसपास की गलियां, बाजार, दुकानें, यहां तक कि सड़क किनारे लगे हुए कई प्रतीकचिह्न जाने-पहचाने लग रहे थे। मगर उनसे अपने आपको जोड़ना, तारतम्य बनाना, इतना आसान नहीं। असल में पुरानी यादें मनुष्य के मस्तिष्कपटल पर अंकित व संचित होती हैं। जिसे रिवाइंड करने पर ही वो चित्र और संदर्भ उभर पाते हैं। और फिर खुली आंखों से आदमी इसे देखता रह जाता है। अन्यथा वर्तमान के धरातल पर आप अपने आप को चाहे जितना रुककर ढूंढ़ने की कोशिश करें कुछ हाथ नहीं लगता। कॉलेज के प्रांगण में कुछ विशेष नहीं बदला। हां, कुछ नई इमारतें जरूर बन गई। हमारी सामाजिक व्यवस्था पर समय का चक्र भी कमाल घूमता है। सब कुछ उसी तरह था सिवाय इसके कि हमारे स्थान पर नये छात्र आ चुके थे। हां, हम में से कुछ एक इस बीच उसी कालेज में अध्यापन का कार्य करते करते प्रोफेसर के पद तक पहुंच चुके थे। उनके लिए पीछे मुड़कर देखना शायद ज्यादा मुश्किल होता होगा, क्योंकि निरंतरता में यादों को संजोकर दिल के किसी कोने में छिपाकर समेटे रखना सरल नहीं। वर्तमान से निकलकर भूतकाल में जाना आम आदमी के लिए आसान नहीं। वैसे भी रोजमर्रा के जीवन में, रोटी-दाल के चक्कर से निकल पाना हरेक के लिए संभव नहीं।
अपने ही कॉलेज में, अपने प्रॉध्यापकों के बीच में, अभी कुछेक रिटायर नहीं हुए थे, किसी भी पूर्व छात्र के द्वारा संक्षिप्त उदबोधन देना, इन विशिष्ट लमहों को जीवन में एक पर्व के समान माना जाना चाहिए। मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूं जो अपने शिक्षकों के बीच में, अपने लेखन के अनुभवों को बांटकर, उनसे अतिरिक्त आशीर्वाद प्राप्त कर सका। उनके लिए मैं आज भी एक युवा छात्र ही था। और उनके सामने जाते ही मुझमें भी बाल-सुलभ शरारतें हिचकोले मारने लगी थीं। मैं एक बार फिर अपनी उम्र से कहीं छोटे होने जैसा व्यवहार कर रहा था। घर-परिवार-समाज में बुजुर्गों के रहते हुए हम सदैव छोटे बने रहते हैं। इस सत्य को हम जानते तो हैं मगर इसका अनुभव किया जाना चाहिए। बहरहाल, इस दौरान वर्तमान छात्रों से बातचीत हुई और कुछ बिंदुओं ने विशेष रूप से मेरा ध्यान आकर्षित किया था। तकरीबन सभी छात्रों के पास मोटरसाइकिल और हॉस्टल के कमरे में कंप्यूटर मिला। संचार के युग में इंटरनेट का होना औचित्यपूर्ण लगा परंतु मोबाइल की आवश्यकता पर मैं असमंजस में था। सैकड़ों की तादाद में बाइक के खड़े होने से हॉस्टल में चलने-फिरने की जगह नहीं रह गई थी। यह दृश्य हर दूसरे कॉलेज के छात्रावास में देखा जा सकता है। इसकी प्राथमिकता व जरूरत पर मेरी ओर से एक बड़ा प्रश्नचिह्न उभरा था। युवावस्था में यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो है ही, माता-पिता पर पैसे का अतिरिक्त बोझ। नयी पीढ़ी के लाखों-हजारों छात्रों के द्वारा खरीदी जाने वाली मोटरसाइकिल के कारण एक व्यवसायी को तो फायदा हो सकता है लेकिन प्रकृति का बेवजह दोहन और फलस्वरूप पर्यावरण को असंतुलित करना, निष्पक्ष बहस का मुद्दा होना चाहिए। तमाम हॉस्टल, कॉलेज से तकरीबन किलोमीटर के फासले पर होंगे और इस उम्र में इतनी दूरी पैदल तय की जानी चाहिए। घास और झाड़ियों के बीच में से सुबह-दोपहर-शाम चार-छह बार पैदल चलना, जाने-अनजाने ही स्वस्थ शरीर के लिए संजीवनी-बूटी का काम कर सकता है। मजबूत शरीर किसी भी कीमत पर चारदीवारी के अंदर बंद जिम के द्वारा नहीं बनाया जा सकता। इन आधुनिक उपकरणों से शरीर को गठीला या पतला तो बनाया जा सकता है, स्वस्थ नहीं। इसीलिए स्कूल-कॉलेज जीवन में पेट्रोलचलित वाहन छात्रों को देने के मुद्दे पर परिवार-समाज व कॉलेज प्रशासन को ध्यान देने की आवश्यकता है। हां, शहर और मार्केट दूर होने पर, पैदल जाना हमेशा संभव नहीं, ऐसे में साइकिल एक बेहतर विकल्प हो सकती है। अन्यथा नियमित बस की व्यवस्था एक उत्तम साधन होगा। यह सामूहिक और सामाजिक व्यवहार में अपनत्व भी बढ़ाता है। वरना आधुनिक तकनीकियां व सुविधाएं इंसान को इंसान से दूर करती हैं। आज के युवा छात्रों में एकाकीपन और उससे उत्पन्न होने वाली परेशानियों को बढ़ते हुए आम देखा जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं कि इन वर्षों में छात्राओं ने अधिक विकास किया है। उच्चशिक्षा में लड़कियों की बढ़ती संख्या इस क्षेत्र में इनकी सफलता का प्रमाण है। बातचीत करने पर आसानी से समझा जा सकता है कि आधुनिक युवावर्ग में लड़कियां अधिक स्वतंत्रत होने के साथ-साथ समझदार, सतर्क, स्वावलंबी, स्वाभिमानी, ऊर्जा व स्फूर्ति से भरपूर हैं। वे लड़कों से कहीं अधिक मेहनती, केंद्रित और संतुलित दिखाई दीं। उनके सपने उनके अपने थे और आदर्श महान। जबकि अधिकांश लड़के इंजीनियर बनते ही नौकरी और पैकेज के चक्कर में अधिक दिखाई दिए। यहां सामाजिक दबाव और पारिवारिक जिम्मेदारी भी कारण हो सकती है। शायद यही कारण है जो अधिकांश कमाने और बसने के लिए आतुर दिखे। हां, आईआईएम व मैनेजमेंट का प्रभाव नजर आया। इस क्षेत्र में भी जाने के लिए लड़कियों में अधिक उत्सुकता नजर आई। प्रशासनिक और पुलिस सेवा में जाने का जुनून भी कन्याओं में अधिक दिखाई दिया। यह आश्चर्य करने वाला था।
यह सर्वविदित है कि हिन्दुस्तान में अव्वल छात्र आमतौर पर इंजीनियरिंग की ओर चले जाते हैं। इसे अन्य क्षेत्र के महान व सफल लोग अन्यथा न लें। अगर यही छात्र अपने प्राकृतिक व बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल अन्य क्षेत्रों में करें तो कमाल कर सकते हैं। इंजीनियरिंग की डिग्री के कारण कई मामलों में वो अपनी संभावनाओं को सीमित कर लेते हैं। वे एक अच्छे वकील बन सकते हैं, मीडिया और पत्रकारिता के क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़ सकते हैं। कला के क्षेत्र में भी संभावनाओं की कमी नहीं। छात्रों के बीच जाकर यह सवाल पूछने पर कि राजनीति में जाना उनके जीवन की मंजिल क्यों नहीं? स्वयं का व्यवसाय क्यों नहीं? अधिकांश के पास इसका सीधा जवाब नहीं था। शायद जोखिम लेने की इच्छाशक्ति नहीं थी। यहां सवाल उठता है कि इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद भी क्या वे एक सफल व अच्छे संपादक और लेखक नहीं बन सकते? तकनीकी के क्षेत्र में हजारों-लाखों न्यायिक उलझनों को सुलझाने के लिए वकालत नहीं कर सकते? वे कम से कम एक अच्छे विज्ञान फंतासी के लेखक तो बन ही सकते हैं। और फिर विज्ञान और तकनीकी तो सभी व्यवसाय के केंद्र में होता है। यहां वे बेहतर ढंग से हाथ आजमा सकते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी और सामाजिक कार्य के लिए समर्पित व्यक्तित्व वाले छात्र थोड़ा कोशिश करें तो राजनीति में भी चमका जा सकता है। अगर आज की युवा पीढ़ी में से होनहार छात्र राजनीति में नहीं जाएंगे तो फिर विश्वपटल पर देश को महाशक्ति बनाए जाने का सपना कैसे पूरा होगा? इस सवाल का जवाब उनके पास नहीं था। यह इतना आसान भी नहीं।
भोपाल एक बेहद खूबसूरत शहर है। विशिष्ट संस्कृति व स्थानीय बोली यहां की विशेष पहचान है। खुशी इस बात की है कि विभिन्न व्यवस्थाओं ने इन्हें बनाए रखने की सफल कोशिश की है। दशकों से, भारत भवन के कारण, भोपाल कला, साहित्य व रंगमंच के क्षेत्र में देश का केंद्र बिंदु रहा है। उसी शहर में एक साहित्य-प्रेमी के द्वारा साहित्यकारों की यादगार वस्तुओं को संग्रहीत करने की कल्पना साकार रूप ले रही है। लोकप्रिय साहित्यकारों की पांडुलिपियां व पत्रों आदि को संग्रह कर दुष्यंत पांडुलिपि संग्रहालय का अस्तित्व अपनी अनोखी पहचान बनाने में कामयाब हुआ है। यह अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है जबकि अभी प्रारंभिक अवस्था में है। देश-विदेश का छोटा-बड़ा हर लेखक, भोपाल आने पर इस संग्रहालय को देखने अवश्य जाता है। एक व्यंग्यकार ने तो यहां तक कह दिया कि यहां आकर लगता है कि अब मर ही जाएं, जिससे कि कम से कम मेरी व्यक्तिगत चीजें भी इस संग्रहालय में जगह पा सकें, और मैं हमेशा के लिए जीवित रह सकूं। मुझे भी यहां पर बतौर लेखक स्थानीय पत्रकारों, लेखकों, पाठकों व सृजनकर्ताओं से बातचीत का मौका मिला। अपने ही शहर में एक नयी पहचान प्राप्त करने का यह सुखद अनुभव था।