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हॉलीवुड की चिंताएं

बद अच्छा बदनाम बुरा वाली लोकप्रिय कहावत हॉलीवुड पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। नग्नता, खुला सेक्स, भ्रष्ट संस्कृति कुछ इसी तरह की बातें हॉलीवुड के नायक-नायिकाओं के संदर्भ में आम हिन्दुस्तानी द्वारा बोली जाती हैं। जबकि हमारे खुद के बॉलीवुड में रूमाल से छोटे आकार के वस्त्र होते जा रहे हैं और चुंबन दृश्य की लंबाई और संख्या पर हीरो-हीरोइन की सफलता की तकदीर लिख दी जाती है। फिर चाहे हीरोइन आम लड़कियों से भी साधारण हो सपनों की राजकुमारी बना दी जाती है और नायक व्यक्तित्व व एक्टिंग प्रतिभा दोनों से ही जीरो क्यों न हों, हीरो बना दिया जाता है। कई बार, अब तो, सेक्स परोसने में बॉलीवुड हॉलीवुड को पछाड़ता महसूस होता है। एक तरफ जहां पश्चिम का प्रेम-प्रदर्शन सहज और स्वाभाविक लगता है, हमारा जबरदस्ती ठूंसा हुआ दिखता है। फिर भी वो बदनाम हैं और हम आत्मप्रशंसा में चूर। घूंघट हटाकर नारी के आत्मनिर्भर होने व आत्मसम्मान की बात करने तक तो ठीक है मगर हम, शरीर उघाड़कर व उभारकर अपनी संस्कृति के सौंदर्य को बेशर्मी से पीछे छोड़कर, अश्लीलता को स्वतंत्रता के नाम पर गली-गली लुभाते व बेचते देखे जा सकते हैं। वैसे तो हॉलीवुड में भी कई कमियां हैं। राजनीति की व्यावसायिक शिक्षा और नेटवर्किंग की कलात्मकता से सफलता की कुंजी वहीं से प्रारंभ हुई है। दूसरों की गरीबी पर हंसते-हंसते करोड़ों-अरबों कमा ले जाना, हॉलीवुड वालों का ही काम हो सकता है। यही क्यों, ऑस्कर में जमकर धूम मचाने के लिए फिर मखमली रेड कार्पेट पर हौले-हौले इतराकर चलो। मीडिया में जबरन सामाजिक प्रतिबद्धता और मानवीय सरोकार दिखाओ, साथ ही मुफ्त में संवेदनशील सभ्य-सुसंस्कृत मनुष्य कहलाने का गौरव प्राप्त करो।

जो सफल और नामी होते हैं, उनमें कुछ न कुछ तो असाधारण अवश्य होता है। इसे हम कई बार कई कारणों से सही-सही देख नहीं पाते। हम यह भूल जाते हैं कि महात्मा गांधी को विश्वपटल पर नयी पीढ़ी के सामने एक नये रूप में पुनर्जीवित हॉलीवुड ने ही किया था। हॉलीवुड की फिल्म तकनीकी, संजीदा प्रदर्शन, मजबूत कथानक व डायरेक्शन की सूझबूझ को स्वीकार न करके हम अपनी हीन-भावना का प्रदर्शन करते हैं। वे यकीनन श्रेष्ठ विशेषज्ञों से भरे पड़े हैं। धर्म की स्वतंत्र आलोचना या व्याख्या हो, युद्ध की भीषणता का सजीव चित्रण, हास्य-व्यंग्य, प्रेम, ट्रेजडी, स्टंट सभी क्षेत्रों में उन्होंने बेहतरीन फिल्में दी हैं। एक और प्रमुख बात जो उन्हें हम सबसे आगे रखती है, वो है उनकी कल्पना शक्ति, एक नये तरह की मौलिक सोच और भविष्य के मानव की नयी-नयी योजनाएं। अंतरिक्ष में उनका कोई मुकाबला नहीं। पुरानी पीढ़ी ‘स्टार वार्स’ को भूल नहीं सकती। आज अमेरिका में विज्ञान संबंधित फंतासी को लेकर सबसे अधिक फिल्में बनती हैं। और विगत कुछ वर्षों में इन्हें देखकर तो ऐसा अहसास होता है कि वो इस क्षेत्र में सतर्क, सजग व सक्रिय होने के साथ-साथ बेहद सफल भी हैं।

सन्‌ 2004 में डायरेक्टर रोलेन्ड की एक फिल्म आई थी ‘द डे ऑफ्टर टुमारो’। इसमें हमारे ही कारणों से पर्यावरण में हुए असंतुलन के द्वारा होने वाले असामान्य परिवर्तन की कल्पना की गई थी। इसे मौसम की तुनक-मिजाजी कह सकते हैं। साथ ही, परिणामस्वरूप भविष्य की भयावहता भी दिखाई गई थी। एक नये अप्रत्याशित हिमयुग का आगमन। सब कुछ भीषण ठंड में जमने लगता है। ऐसे में हीरो पिता द्वारा पुत्र को बचाने का प्रयास। यह व्यावसायिक रूप से भी एक सफल फिल्म थी। उसी डायरेक्टर के द्वारा एक नयी फिल्म आई है, ÷2012′। यहां भी हमारे द्वारा प्रकृति के दोहन के कारण उत्पन्न होने वाली समस्या को बड़े नाटकीय अंदाज से ही सही, मगर बखूबी दिखाया गया है। यहां ग्लोबल वार्मिंग के द्वारा जलस्तर के बढ़ने की कल्पना है। फिल्म में, अंत में, सकारात्मक दृष्टि के साथ विज्ञान की मदद से मानवीय सभ्यता को बचाने की सफल कोशिश की गई। इसमें संदेश है। इसकी कल्पना न चाहकर भी वास्तविकता के करीब लगती है। कहानी के अंदर कहीं न कहीं एक विचारधारा छिपी है। कहीं वर्तमान व्यवस्था का विरोध है तो उसी विज्ञान के द्वारा विनाशकारी प्रकृति से अपने अस्तित्व को बचाने की एक काल्पनिक कोशिश भी है। इसमें मानवीय संवेदना का पुट है। सामाजिकता है। नायक-नायिका और उनका परिवार है। उनके बीच आलोकिक प्रेम है। राजनीति है, उसका बुरा पक्ष है तो अच्छे और समाज के लिए समर्पित नेतृत्व भी है। लोभी और बदमाश लोग हैं तो संवेदनशील मनुष्य भी हैं। एक रईस की बाजार शक्ति है तो गरीब के संघर्ष की अंत में जीत भी। कुल मिलाकर सब कुछ है। एक पागल के द्वारा चिंतन है, व्यंग्य है, शाश्वत सत्य का प्रदर्शन है। वह हंसते-हंसते रूला देता है और रोते-रोते हंसा देता है। इन सबके साथ अगर कुछ है तो वो है उत्कृष्ट फोटोग्राफी और एक नयी सोच। समाज व सभ्यता के िलए चिंता जो चिंतन बनकर उभरती है। ये दुर्भाग्यवश हिन्दी फिल्मों में दिखाई नहीं देती।

वर्ष 2007 में एक और अंग्रेजी फिल्म आई थी ‘आई एम लिजेंड’। रिचर्ड मैथेसन की उपन्यास पर आधारित इस फिल्म को फ्रांसिस लॉरेन्स ने डायरेक्ट व स्मिथ ने एक्ट किया है। यह एक विज्ञान की कल्पना में हॉरर-एक्शन-डिसास्टर फिल्म है। किस तरह से एक वैज्ञानिक खोज की प्रक्रिया के दौरान पूरी मानवीय सभ्यता अचानक खतरे में पड़ जाती है। सारे जीवित मनुष्यों पर इस नये विशिष्ट जीवाणु का आक्रमण हो जाता है और वे एक अजीब जंगली जानवर में परिवर्तित हो जाते हैं। फिल्म का हीरो अपने कुत्ते के साथ किस तरह से मानवीय सभ्यता को बचाने के लिए कोशिश करता है। फिल्म की कहानी अद्भुत है। एकदम नयी कथावस्तु, एक नया विषय, एक नयी तरह की फिल्म। एक अकेला नायक, सिर्फ एक कुत्ते के साथ मिलकर, लाखों-करोड़ों दर्शकों को, लेखक-डायरेक्टर और फोटोग्राफर की मदद से, किस तरह दो से ढाई घंटे बांधकर रख सकता है, इसका यह एक सजीव उदाहरण है। कोई सेक्स नहीं, कोई मसाला नहीं। कोई बेवजह प्रचार के हथकंडे नहीं। यूं तो फिल्म के अंत में, नायक अपने मकसद में सफल होता है, लेकिन सफल होने से पूर्व वह मानवीय सभ्यता को बचाने के लिए राक्षसों से लड़ता है, और अपनी जान तक दे देता है। यहां जानवरों के प्रति प्रेम है तो परिवार के प्रति समर्पण भी। इन सब उदाहरणों को देखकर यहां एक प्रश्न अनायास ही उभरता है कि न जाने क्यों, हम बेवजह अपनी संस्कृति की महानता का प्रदर्शन करते घूमते हैं और उनकी सामाजिक सांस्कृतिक व सभ्यता के प्रति प्रतिबद्धता तथा मानवता पर प्रश्नचचिह्न लगाते रहते हैं? जबकि उनकी फिल्मों में भी वहां के घर-परिवार व व्यक्तिगत संवेदनाएं अपनी विशिष्ट रूप में विद्यमान दिखाई देती हैं।

विज्ञान की कल्पनाएं, एक नये दर्शन के रूप में, तरह-तरह की विचारधाराओं के साथ, वहां अपने चरम पर है। इस तरह का नयापन हिन्दी फिल्मों से बिल्कुल नदारद है। यह कहना उचित न होगा कि हिन्दी का पाठकवर्ग व दर्शक इसके लिए तैयार नहीं। वरना ये फिल्में आज हिन्दुस्तान में सफलता के परचम नहीं लहराती। इन्हें देखकर कौन कह सकता है कि उनके पास हमसे बेहतर कुछ नहीं? बल्कि वर्तमान में, वे हर मामले में हमसे आगे दिखाई देते हैं और मानवीय सभ्यता को बचाने व संस्कृति को गतिशील बनाए रखने में हमसे अधिक जागरूक। आज फिल्मों में, प्रकृति का दोहन, आवश्यकता से अधिक उपयोग और उपभोग करना, प्राकृतिक/सामाजिक/राजनैतिक असंतुलन, हमारी व्यवस्थाएं, अन्य जीव-जंतुओं के प्रति हमारी गलत नीति, उसका जितना अच्छा चित्रण हॉलीवुड में होता है वो बॉलीवुड में संभव नहीं। कहने वाले कह सकते हैं कि समाज और प्रकृति को प्रदूषित करने के लिए यही लोग ज्यादा जवाबदेह भी हैं और इस तरह का प्रदर्शन बनावटी आंसू की तरह है। यह बहुत हद तक सच हो सकता है लेकिन वे कम से कम कोशिश में तो लगे हैं। उलटा हम अपने दर्शकों को अपनी फिल्मों के माध्यम से उनकी जीवनशैली में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। मगर उनकी तरह मौलिक सोच को निष्क्रिय करके। वो अगर कचरा पैदा करते हैं तो साथ ही उत्कृष्टता भी। और हम मात्र नकल करके रह जाते हैं। यहां तक कि हमारी नकल में भी नाटकीयता लगती है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे पास विरासत में एक समृद्ध साहित्य और लंबा इतिहास है। कला के क्षेत्र में क्लासिक्स की हमारे पास कमी नहीं। मगर दुःख इस बात का अधिक होता है कि वह हमारा ही पढ़कर कुछ नया पैदा कर देते है। अँग्रेज़ी फिल्म ‘अवतार’ इस बात का सबूत है जो हिन्दुस्तान में भी धूम मचा चुकी है। खर्च के साथ-साथ कमाने में भी इसने सारे पुराने रिकार्ड को ध्वस्त किया है। और इसके लिए उन्हें किसी विवाद को हवा देने की जरूरत नहीं पड़ी या नायक को घूम-घूमकर गली-गली डंका नहीं बजाना पड़ा। काम अपने आप बोलता है। वो मल्टीप्लेक्स के माध्यम से प्रारंभ के मात्र तीन दिनों में कमाई करने के लिए नहीं आते। इन फिल्मों को कभी भी देखा जा सकता है। और देखते ही दावे से कहा जा सकता है कि हां, वो आज की तारीख में हमसे अधिक कल्पनाशील हैं, मेहनत कर रहे हैं, मौलिक सृजन के लिए प्रयासरत रहते हुए निरंतर अध्ययनरत व चिंतन करते हैं। वो विश्व चिंता को अपने अंदर समेट लेते हैं। उनके संदर्भ हम सब से जुड़ जाते हैं। ऐसे में वो क्यों नहीं विश्व शक्ति व राजनीति के केंद्र में रहेंगे? उपरोक्त कुछ एक शब्द इस प्रश्न का छोटा-सा मगर सटीक जवाब है।