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कलियुग में बर्बादी का कारण

वर्तमान आधुनिक काल को कलियुग कहे जाने का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि चोर-सिपाही, गरीब-अमीर, पढ़ा-लिखा-अनपढ़, राजा-रंक, हर कोई कहता हुआ मिल जाएगा कि बहुत बुरा हाल है, व्यवस्था चरमरा गई है, समाज का पतन तीव्र गति से हो रहा है, हर जगह त्राहि-त्राहि और हा-हाकार मचा हुआ है। मजे की बात है कि इतना सब कुछ कहने व स्वीकार करने के बावजूद कोई कुछ करता नहीं। यह एक विडंबना है और मानवीय सभ्यता के अजब विकास में विकृति की गजब मिसाल। इसका कारण जानने व विश्लेषण करने बैठें तो शायद बहुत मुश्किल नहीं होगी। निष्कर्ष आसानी से निकल आएगा। समुद्र मंथन करने वाले स्वयं इसी सत्य को स्वीकार तो करेंगे मगर आत्मसात नहीं कर पाएंगे। विष पीने के लिए तुरंत शिवजी की तलाश प्रारंभ कर देंगे। अर्थात परिस्थितियों से बचना चाहेंगे। असल में यह निष्क्रिय युग है। कर्महीन लोगों का काल है। जहां सब कुछ जानते हुए भी हम आंखें बंद कर लेते हैं, सुनकर भी अनसुना कर देते हैं, सच बोलना तो चाहते ही नहीं, उलटे फायदे के लिए सौ झूठ बुलवा लो।

आमतौर पर हम अच्छे और बुरे इंसान के रूप में ही व्यक्ति को देखते और परिभाषित करते हैं। यह एक सरल वर्गीकरण है। मगर स्थायी नहीं, चूंकि यह हर एक के व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर आधारित है और परिवर्तनशील है। एक की नजरों में अच्छा इंसान दूसरे की नजर में बुरा हो सकता है। इसे हम नजरों का फेर कहकर टरकाने की कोशिश करते हैं। और फिर सामान्य अवस्था में अमूमन समाज को दो वर्गों में बांट देते हैं। एक वर्ग अच्छे लोगों का, सही शब्दों में सज्जन व्यक्ति और दूसरा वर्ग दुष्ट या दुर्जन लोगों का कहा जाता है। इन्हें आम बोलचाल में बदमाश भी कह सकते हैं। इन्हीं दो मुख्य समूहों को आगे भी दो अलग-अलग भागों में बांटा जा सकता है। एक सक्रिय और दूसरा निष्क्रिय। अर्थात अच्छे लोगों के बीच में ही एक सक्रिय सज्जन हो सकता है तो दूसरा निष्क्रिय सज्जन। उसी तरह से बदमाशों को भी निष्क्रिय और सक्रिय बदमाश में बांटा जा सकता है। और इस तरह से किसी भी काल में, समाज में मनुष्य को चार अलग-अलग समूह में रखा जा सकता है।

आदिकाल से उपरोक्त वर्गीकरण अस्तित्व में है। ये अलग-अलग रूप में दर्शाये जाते रहे हैं। धर्म ने भी इसकी अपने-अपने तरह से व्याख्या कर रखी है। समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र की अपनी परिभाषाएं रही हैं। प्राचीन ग्रंथों को पलटें तो देवता और राक्षसों की कहानी हर एक की मूल कथा है। इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत को प्रतीक रूप में दिखाया जाता रहा है। साहित्य, कला, नाटक व सिनेमा ने भी सदा ही नायक-खलनायक, दो चरित्र बनाए। समाज के हित में, नायक को, हर क्षेत्र में बेहतर ही नहीं श्रेष्ठ व विजयी दिखाया जाता रहा है। इन बातों में कोई नयापन नहीं है अर्थात ऊपर किया गया वर्णन पुराना है। संदर्भित ज्ञान भी सदा से उपलब्ध रहा है। यहां सवाल उठता है कि फिर इसको बार-बार बताने की आवश्यकता क्यों? असल में याद करवाते रहना पड़ता है, वरना मनुष्य की याददाश्त सत्कर्मों के लिए कमजोर होती है।

अब प्रश्न उठता है कि इन देवताओं और राक्षसों को आगे निष्क्रिय और सक्रिय वर्ग में पुनः कैसे विभाजित किया जाए। शब्दार्थ के रूप में देखें तो निष्क्रिय वो कहलाएगा जो क्रियाशील नहीं है। उदाहरणार्थ, एक निष्क्रिय बदमाश की मानसिकता तो दुष्ट की होगी, वह उस विचारधारा से प्रेरित भी है, मगर अपने आप से गलत कार्य करने के लिए तैयार नहीं। कह सकते हैं शैतान तो है मगर शैतान का दिमाग नहीं। इन लोगों का दिल अच्छा नहीं होता। ऐसे लोग गुंडे-मवाली और सड़कछाप से लेकर किसी बड़े बदमाश के मोहरे हो सकते हैं मगर खुद डॉन नहीं। ये बदमाशों का नेतृत्व नहीं करते। सरल शब्दों में निष्क्रिय बदमाश स्वयं से ऐसी कोई बदमाशी करने के लिए कोशिश नहीं करेगा और करेगा भी तो छोटे स्तर की करेगा। और इससे बड़ी बात है कि वह दूसरों को कभी भी गलत काम करने के लिए अपने से प्रोत्साहित नहीं करेगा। वो इस कार्य में सक्षम ही नहीं। इसे मूर्ख बदमाश भी कह सकते हैं। एक क्रूर जमींदार का लठैत सबसे सरल उदाहरण हो सकता है। कभी-कभी उसे स्वयं इस बात का अहसास नहीं होता कि वो क्या गलत कर रहा है। अर्थात पाप का भागीदार होगा मगर खुद पाप का सूत्रधार नहीं। ऐसे लोग बुद्धि से कमजोर और शरीर से बलवान होते हैं। बहरहाल, इन सब तर्कों से उसका गुनाह कम नहीं होता। ऐसा ही कुछ-कुछ निष्क्रिय अच्छे लोग को भी परिभाषित किया जा सकता है। वो बुरा काम तो बिल्कुल नहीं करते, न ही उनकी विचारधाराएं बुरी होती हैं। ये मूलतः भले मानुष हैं, दिल और दिमाग दोनों से ही संवेदनशील भी होते हैं। संक्षिप्त में, पक्के व सच्चे इंसान, मगर अच्छाई के पक्ष में कुछ करने के लिए निष्क्रिय रहते हैं। उसके लिए वे कोई प्रयत्न भी नहीं करते। उलटा चुप रहते हैं। कह सकते हैं कि दूर से तमाशा देखते रहते हैं। किसी बुरे व्यक्ति द्वारा गलत काम करता देख, उसे कोसेंगे जरूर मगर रोकने का प्रयास नहीं करेंगे। दूसरे की मुसीबत में आंखें बंद कर लेते हैं, दरवाजा भेड़ लेते हैं। ये मूलतः कमजोर लोग होते हैं।

इसी संदर्भ को आगे बढ़ाकर सक्रिय बदमाश की बात की जाए तो ज्यादा शब्दों की आवश्यकता नहीं। जो सदा गलत कार्य करने व करवाने को तैयार रहता है। समाज व राष्ट्र के अहित व स्वयं के हित में काम करता हो। ऐसे दुष्ट खुद तो गलत काम करते ही हैं दूसरों को भी बदमाशी करने के लिए उकसाते रहते हैं। किसी भी हद तक जा सकते हैं। ठीक इसी तरह से सक्रिय अच्छे व्यक्ति वो हैं जो धर्म की रक्षा के लिए सदैव तैयार ही नहीं क्रियाशील भी रहते हैं। ये देवतुल्य होते हैं।

महाभारत के पात्रों के माध्यम से उपरोक्त वर्गीकरण को और अधिक आसानी से समझा जा सकता है। युद्धिष्ठिर को अच्छे मगर निष्क्रिय वर्ग में रखा जाना चाहिए। जो सदैव सत्य व धर्म के साथ तो हैं मगर कभी उसके लिए अपनी ओर से सक्रियता नहीं दिखाई। आगे बढ़कर उसके लिए कुछ नहीं किया। सिर्फ सत्य बोलना कोई मायने नहीं रखता। ऐसा सत्य किस काम का जो अधर्म को बढ़ाये। धर्म की रक्षा के लिए बोला गया असत्य इससे कई गुणा बेहतर हो सकता है। सत्य की विजय व शांति की स्थापना के लिए कर्म करना भी आवश्यक है। और ऐसा करते ही इंसान सक्रिय अच्छों के वर्ग में आ जाता है। श्रीकृष्ण इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हो सकते हैं। उन्होंने न केवल धर्म व सत्य का पक्ष लिया बल्कि उसकी रक्षा के लिए युद्ध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में भाग लिया, साथ ही दूसरों को ऐसा करने के लिए प्रेरित भी किया। वहीं दोर्णाचार्य और भीष्म पितामह सत्पुरुष होते हुए भी निष्क्रिय अच्छों के वर्ग में ही आ पाएंगे। ये दोनों महापुरुष अन्याय के समय सदैव चुप रहे। अधर्म होता देख आंखें बंद रखी। कारण चाहे जो भी हो। यहां विस्तार में तर्क-वितर्क का कोई लाभ नहीं। ये महान योद्धा जरूर थे, मगर धर्म व मानवता की रक्षा तो दूर की बात है, कई बार तो अधर्म के पक्ष में भी दिखाई दिए। मगर फिर भी वे मूल स्वभाव के कारण अच्छों के वर्ग में ही आएंगे। ठीक इसी तरह, दूसरी तरफ दुर्योधन निष्क्रिय बुरे वर्ग में लिया जा सकता है। वो स्वयं से दुष्टता नहीं करता था। उसके पीछे खड़ा शकुनि मामा सही अर्थों में सक्रिय दुष्ट है। जो समाज व राष्ट्र के हित के विपरीत सोचता है। अधर्म के लिए दूसरों से कर्म भी करवाता है। धृतराष्ट्र को अपनी सोच, लालच, अंधी महत्वाकांक्षा के कारण सक्रिय बुरों में ही रखा जाना चाहिए। क्योंकि वो कई अधर्मी व राष्ट्रविरोधी कार्य के अलावा ऐतिहासिक नरसंहार के लिए न केवल उत्तरदायी रहे बल्कि पूर्णतः सक्रिय भी थे। उनका स्वार्थ राष्ट्र से टकराता प्रतीत होता है। महाभारत होने के कारणों को देखें तो मोटे तौर पर अच्छे मगर निष्क्रिय लोगों की संख्या का अधिक होना ही मुख्य है। दूसरी ओर सक्रिय बदमाशों की बेहद सक्रियता भी प्रमुख कारण बनी। इन सबके बावजूद महाभारत के परिणाम से हम परिचित हैं। सत्य व धर्म की विजय। और जिसका श्रेय दिया जाना चाहिए श्रीकृष्ण को। इसे इस तरह भी लिया जा सकता है कि एक अकेले सक्रिय सत्पुरुष के नेतृत्व से भी धर्मयुद्ध जीता जा सकता है।

प्रकृति का संतुलन हर जगह देखा जा सकता है। हर काल में अच्छे व बुरों की कुल संख्या भी तुलनात्मक रूप में संतुलित ही रहती है। तभी समाज का अस्तित्व कायम रहता है। फर्क सिर्फ इतना हो जाता है कि कौन अधिक सक्रिय है। राक्षस समाज के हित में कभी नहीं सोचते। वे मानव जाति के दुश्मन होते हैं। मूलतः सुख-शांति और विकास विरोधी। इसमें कोई शक नहीं कि बुरे वर्ग के दोनों, सक्रिय व निष्क्रिय, समाज के लिए तो हानिकारक होते ही हैं, मगर उससे अधिक नुकसानदायक बन जाते हैं निष्क्रिय अच्छे लोग। और फिर उनका अधिक संख्या में होना तो किसी भी काल के लिए अभिशाप के समान है। चूंकि ये गलत कार्य होता देखकर भी चुप रहते हैं, ऐसे में वो बदमाशों को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देते हैं। ये समाज व सभ्यता का अधिक नुकसान कर जाते हैं। महाभारत काल की तरह। दुर्भाग्यवश इस युग में भी इन अच्छे मगर निष्क्रिय लोगों की संख्या बढ़ी है। ऊपर से मुश्किल इस बात की है कि सक्रिय देवताओं की संख्या नगण्य हुई है। राक्षस तो सदा से अपनी संख्या में पूरे रहे हैं। जबकि पूरे तालाब को गंदा करने के लिए एक मछली ही काफी होती है। यही कारण है जो बुराई का साम्राज्य चारों ओर फैला है। आज, अच्छे लोगों को समझना होगा कि आंखें बंद करने से तूफान नहीं टलता। जीवन एक संघर्ष है। सिर्फ बोलने या चिल्लाने से व चिंता करने से भी कोई अर्थ नहीं निकलेगा। अपने अंदर की निष्क्रियता को खत्म कर सक्रिय हो जाओ। समझो! हे मानव, विपत्ति में अकर्मण्यता ठीक नहीं। हे अर्जुन, गांडीव उठाओ, युद्ध में चुप रहना कायरता की निशानी है। हे पृथ्वी लोक के श्रेष्ठ योद्धा, सतर्कता से तुरंत धनुषबाण चलाओ, नहीं तो दुश्मन तुम्हें नष्ट कर देगा। हे वीर पुरुष, जीवित रहना है तो हर हाल में विजयी होना होगा। सुकून व चैन की नींद चाहिए तो पहले धर्म का झंडा फहराना होगा। वरना, हे मनुष्य! तू प्राणियों के बीच अपने सर्वश्रेष्ठ होने की विशिष्ट पहचान खो देगा और सिर्फ कहलाएगा, एक जानवर।