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झूठी शान के भूखे हम भारतीय

विगत दिवस एक कार के पीछे लिखा देखा, ‘टीवी प्रेस’। इन दो शब्दों ने ध्यान आकर्षित किया था। यहां कुछ नया और अलग हटकर था। स्कूटर, कार, मोटरसाइकिलों पर ‘प्रेस’ लिखा हुआ तो आम मिल जाएगा। कस्बे से लेकर महानगर तक। पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण पूरे भारत में। मगर यहां साथ में ‘टीवी’ भी जोड़ दिया गया था। मतलब साफ था, गाड़ी के अंदर बैठा आदमी अपनी पहचान आम प्रेस वालों से अलग बताना चाहता था। इसके द्वारा एक बात बिल्कुल स्पष्ट हो रही थी कि ‘टीवी प्रेस’ का होना विशिष्ट है। और इसमें कोई शक भी नहीं कि आज के दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अधिक ताकतवर और समाज में वजन रखता है। तो कहीं यह उसी का प्रतिफल तो नहीं?

अधिकांश पुलिस वाले, फिर चाहे वो कांस्टेबल ही क्यों न हो, अपने निजी वाहन के आगे-पीछे ‘पुलिस’ जरूर लिखवाते हैं। मन में सवाल, जिज्ञासावश, उठता है कि यह आखिरकार किसलिये? अब ये चोरों के लिए तो हो नहीं सकता। वो तो पढ़कर और भी सजग हो जाएंगे। तो क्या उन्हें सतर्क करने के लिए है? या फिर सज्जनों को आगाह करने के लिए? या सिर्फ आमजन को बतलाने के लिए कि हम हैं? शायद। मगर फिर सेना से संबंधित जवान से लेकर अफसर तक, अपनी व्यक्तिगत गाड़ियों पर, रिटायर होने के बाद भी, कहीं न कहीं आर्मी जरूर लिख देते हैं। ये क्यूं? पुलिस वालों का शक्तिप्रदर्शन तो सैनिकों के लिए कहीं यह शान की बात तो नहीं? हो सकता है। लेकिन फिर वकीलों द्वारा अपनी वाहनों पर ‘एडवोकेट’ लिखा जाना क्या दर्शाता है? यह तो हुई आम बात। जो यही खत्म नहीं होती। अब कुछ विशिष्ट भी देख लें। सभी राजनीतिक पार्टियों के छोटे से छोटे कार्यकर्ता से लेकर बड़े से बड़े पदाधिकारी तक की गाड़ियों में आगे कुछ न कुछ लिखा हुआ जरूर मिल जाएगा। अध्यक्ष, महामंत्री, सचिव, सहसचिव और इसी तरह के कई पदनाम। अब चूंकि सिर्फ इससे बात नहीं बनती इसीलिए साथ में राज्य, जिले, ब्लाक, शहर का नाम भी होता है। वैसे तो हमारे देश में गांव, देहात, कस्बों की संख्या हजारों में हैं। लेकिन इससे भी समस्या कहां सुलझ पाएगी। सिर्फ कुछ हजार या लाख लोग ही अपनी पहचान बना पाएंगे। बाकी? शायद तभी तो मीडिया सेल, अल्पसंख्यक वर्ग, युवा मोर्चा, महिला संगठन, पिछड़ा वर्ग इत्यादि जैसे संगठन भी हर पार्टी द्वारा बनाए जाते हैं। और ये अनगिनत हो सकते हैं। बस शब्द साहित्य का थोड़ा-सा ज्ञान होना चाहिए। और इनके अध्यक्ष और महासचिव आदि की नेमप्लेट (?) लगी सैकड़ों गाड़ियां हर शहर में भागती-दौड़ती मिल जाएंगी। और इस तरह से हर एक राजनीतिक पार्टियों ने कुछ और लोगों की महत्वाकांक्षा को शांत करने का प्रबंध कर लिया। कइयों ने तो और न जाने ऐसे कितने अनजान व छोटे-छोटे ग्रुप, सोसायटी व क्लब बना डाले। जिनका अर्थ भी ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है। तो क्या हुआ, गाड़ियों में गोल्डन, सिल्वर, कांस्य, चाहे जो प्लेट लगी हो, अपनी शान तो बढ़ती है।

पता नहीं ये गाड़ी वाले महानुभाव किसे क्या पढ़ाना व दिखाना चाहते हैं? और कौन इसको पढ़ने में उत्सुक तथा प्रभावित होता है? मगर यह बीमारी बिहार और उड़ीसा के पिछड़े क्षेत्र से लेकर गुजरात और पंजाब के विकसित क्षेत्रों में भी आम मिल जाएगी। लेकिन कभी-कभी यह पदनाम की जगह सूचनापट्टी अधिक लगने लगती है। कई जगह तो पूरा बायोडाटा-सा लिखा जान पड़ता है। तो कई बार यह बड़े-बड़े आकार के रंग-बिरंगे साइनबोर्ड नुमा पदनामपट्टी विज्ञापन करते प्रतीत होते हैं। और कई गाड़ियों में तो आगे-पीछे दोनों जगह लगाये जाते हैं। कई सुंदर, आकर्षक और कलात्मक तो कई बड़े भद्दे लगते हैं। इस नाम के चक्कर में राजनेताओं की बात तो समझ में आती है लेकिन सरकारी नौकर भी इसमें पीछे नहीं। अधिकांश केंद्रीय अधिकारियों की गाड़ी में ‘भारत सरकार’ लिखा देखा जा सकता है तो राज्य की गाड़ियों में संबंधित राज्य का नाम। एक व्यंग्यकार दोस्त ने इस पर चुटकी ली थी कि इनको देखकर लगता है कि मानो सारी सरकार इसमें चल रही है और इनकी हालत से सरकारी व्यवस्था का अंदाज लगाया जा सकता है। तो क्या हुआ, सब-डिविजन में पदस्थ एसडीएम साहब (एक उदाहरण) की गाड़ी में लिखा हुआ एसडीएम का बोर्ड अमूमन देखने लायक होता है। कई बार यह अपनी गाड़ी के अनुपात से कहीं अधिक बड़े आकार का होता है। साफ-साफ मतलब है कि दूर से पढ़ने वाला राहगीर साहब की गाड़ी देखकर एक किनारे हो जाए। डीएम, कलेक्टर, एसपी, आईजी, कमिश्नर यहां तक कि थाना इंचार्ज ‘एसएचओ’ की गाड़ी में भी यह अक्सर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होता है। शायद यह इसलिए लिखा जाता हो कि किसी को बताने की आवश्यता ही नहीं, देखने वाला देखते ही यह पहचान लेगा कि गाड़ी अमुक-अमुक अधिकारी की है। फिर चाहे साहब की गाड़ी से उतरने वाला घर का चपरासी ही क्यों न हो। पूर्व में राजाओं के आने की पूर्व सूचना का उद्घोष किया जाता था और अंग्रेजों के आते-आते प्रशासन विशिष्ट गाड़ियों के माध्यम से गुलाम आम जनता पर रोब डालता रहा होगा। मगर अब? तो क्या यह सड़क पर खड़े ट्रैफिक वाले के लिए है? चूंकि आधुनिक इलेक्ट्रिक रेड लाइट तो इनको समझ नहीं सकती। इस परंपरा का कारण ढूंढ़ना भी एक बड़ा पेंच वाला काम लगता है। यह दीगर बात है कि कभी-कभी यह शान-शौकत उलटी भी पड़ जाती है। कई जनआंदोलन के दौरान, जब स्थानीय व्यवस्था कुछ देर के लिए अशांत हो जाती है तो कई पुलिस वालों को अपनी व्यक्तिगत स्कूटर-मोटरसाइकिल पर लिखे हुए ‘पुलिस’ शब्द को छिपाते और मिटाते हुए देखा जा सकता है।

यह बोर्ड लगाने का नशा कभी-कभी हास्यास्पद भी हो जाता है। एक बोर्ड पर निगाह पड़ी, लिखा था, ‘चेयरमैन’ और नीचे की पंक्ति में था ‘मलेरिया’। शायद आगे के शब्द टूट या मिट गए थे। और गाड़ी में बैठा आदमी ‘चेयरमैन मलेरिया’ बनकर ही घूम रहा था। अब गाड़ी में बैठे साहब के पद का अंदाज लगाना हर एक के लिए मुश्किल है। पता नहीं यह बीमारी विदेशों में है या नहीं? देखी नहीं। हो न हो, अन्य एशियन देशों में जरूर होगी। बहरहाल, पश्चिम के देशों में अगर नहीं है तो विदेशियों को यह बात हमसे जरूर सीखनी चाहिए। कुछ तो हमारे पास नया है। कुछ ऐसा है जिसे कलात्मक कहा जा सकता है। इसे दुनिया के अजूबों में भी डाला जा सकता है। इसकी सूची बनाकर लिम्का बुक और ग्रिनीज वर्ल्ड रिकॉड में दर्ज किया जा सकता है। एक कंपनी ने फरमान निकाला कि कंपनी की सारी गाड़ियों में कंपनी का ‘लोगो’ और ‘नाम’ का स्टिकर लगा होना चाहिए। इससे हमें प्रचार मिलेगा। बात बिल्कुल ठीक थी, सैद्धांतिक रूप से ही नहीं व्यावहारिक रूप से भी। बिना कुछ खर्च किए हुए विज्ञापन, प्रचार और प्रसार। मैनेजमेंट बोर्ड का दबाव देख कंपनी के सीईओ ने नीचे आदेश जारी कर दिया। और बात जब खुद की गाड़ी की आई तो उसे इस तरह का स्टीकर गाड़ी पर लगाना उचित न लगा। शायद उसकी शान के खिलाफ हो। लेकिन नियम के बाहर कैसे जा सकते हैं? वह समझदार था, बहुत सोच-विचार कर उसने कार के पीछे लिखवा दिया ‘आई ओनली यूज… (कंपनी का नाम) …डू यू?’ (मैं सिर्फ… (कंपनी का नाम) इस्तेमाल करता हूं… क्या आप भी?)

गाड़ी के पीछे लिखा जाना, पीछे चलने वाले को आकर्षित करने का एक अच्छा तरीका है। ऐसे ही कई मजेदार स्लोगन आपको गाड़ियों में मिल जाएंगे। इस पर तो पूरा एक लंबा-चौड़ा लेख बन सकता है। ‘मेरा भारत महान’, ‘आई एम एन इंडियन’, देशभक्तों की गाड़ियों में आम मिल जाएगा। कुछेक अंग्रेजीभक्त हिन्दुस्तानी भी मिलेंगे, जिनकी गाड़ियों में कनाडा और अमेरिका के झंडों का चिह्न अंकित होता है। इनमें से अधिकांश एनआरआई होते हैं। जो यह बताने से कभी नहीं चूकते कि वह इस देश के नहीं हैं। फिर चाहे वो विदेशों में कोई भी छोटा-मोटा काम ही क्यों न कर रहे हों। लेकिन यहां आकर अपनी शान बघारने का कोई मौका नहीं छोड़ते। यहां कलात्मकता ज्यादा मिल सकती है। कॉपीराइट का भी चक्कर नहीं। मोटरएक्ट का पता नहीं। वैसे तो कुछ लोग अपने बच्चों का नाम पीछे लिखवाते हैं तो दिलफेंक लोग पत्नी का। पता नहीं प्रेमिका का नाम लिखा जाता है या नहीं? इस पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लग सकता है। हो सकता है लिखा जा रहा हो, अब आम लोग इसे कहां समझ पायेंगे। यह प्रेम-प्रदर्शन का नायाब तरीका हो सकता है। बशर्ते कि पढ़ने वाला इसे समझ सके। वैसे कोई बड़ी मुसीबत भी खड़ी हो सकती है।

बात यहीं नहीं खत्म होती। ताकतवर अपनी ताकत दिखाने का कोई मौका नहीं चूकता। इसलिए उत्तर भारत की गाड़ियों में यह लिखा हुआ आम मिल जाएगा, ‘आई एम रोड मास्टर’, ‘हीरो’, ‘जट सिख’, ‘राजपूत’, ‘योद्धा’ आदि आदि। कहीं-कहीं ‘मराठा-दा वॉरियर’ भी मिल जाएगा। दक्षिण व अन्य गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्र में भी इस तरह का जरूर कुछ होता होगा जिसे लिखकर मूंछ पर ताव आ सके। हिन्दुस्तान में ऐसे लिखे जाने वाले पद नामपट्टिका की सूची बनाई जाए और अध्ययन किया जाए तो इससे गाड़ी वाले के व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है। इससे हमारी मानसिकता का विश्लेषण और समाज की अंतरंग दबी-छिपी जानकारी भी प्राप्त हो सकती है। यकीनन यह एक शोध का विषय हो सकता है। जिस देश में पीएचडी खरीदी व बांटी जाती हो, वहां इस विषय पर समाजशास्त्र का मनोविज्ञान के रूप में एक शीर्षक तो हो ही सकता है। यकीनन हम सदैव सिर्फ शक्तिशाली होना ही नहीं, ऐसा दिखने-दिखाने के लिए प्रयासरत भी रहते हैं। अपनी शक्ति का आम प्रदर्शन करने का हमारा लंबा इतिहास है। सामान्य से कुछ अलग हटकर होना इंसान की कमजोरी रही है। और ऐसा विशेष करने के चक्कर में हम अमूमन रहते हैं। कोशिश रहती है कि दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करें। शायद तभी कभी कोई अपने वाहन पर यह नहीं लिखवाता कि मैं अमुक-अमुक कार्यालय में ‘क्लर्क’ हूं। दुकानदार अपनी गाड़ियों में ‘शॉपकीपर’ क्यूं नहीं लिखता? बिजनेसमैन, ‘व्यापारी’ क्यूं नहीं लिखवाता? शायद गुंडे-बदमाश पीछे लग जाएंगे और इनकम टैक्स वालों की निगाहें पड़ने लगेगी। बहरहाल, इन नामों के द्वारा न तो शक्ति का प्रदर्शन होता है, न ही सामने वाले पर प्रभाव पड़ता है और फिर ऐसा भी कुछ नहीं, जिसका बलपूर्वक प्रयोग किया जा सके। तो फिर क्यूं लिखा जाए? वरना अब तक जरूर लिखा जाने लगता।

जब एक पत्रकार अपने वाहन पर अपनी पहचान दिखा सकता है तो एक साहित्यकार क्यों नहीं? कल्पना कीजिए, कोई कवि अपनी साइकिल के आगे ‘कवि’ लिखकर घूमे या कोई उपन्यासकार अपने स्कूटर के आगे ‘कथाकार’ लिखे। इस तरह से तो उसका प्रचार होना चाहिए? लेकिन कोई लिखता नहीं। क्यूं? क्योंकि इस से न तो सम्मान मिलेगा न ही विशिष्ट पहचान। उलटा हंसी का पात्र जरूर बनेगा। तो फिर क्या हुआ, पाठकों/दर्शकों की क्यूं परवाह करना? हम सब को अपना-अपना पदनाम लिखना शुरू कर देना चाहिए। फिर चाहे हम चौकीदार, कर्मचारी, मजदूर और सब्जी-फल वाले क्यूं न हों। बेरोजगारों को तो जरूर लिखना चाहिए। सोचिए! तब कितना मजा आएगा। कैसी अजीबोगरीब स्थिति होगी? हो सकता है ये बड़े-बड़े पदनाम के बोर्ड, गाड़ियों से अपने आप हट जाएं।