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कहीं हम चौथे इडियट तो नहीं?
फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ की अच्छी चर्चा हो रही है। इंजीनियरिंग कालेज का छात्र जीवन, युवा वर्ग का संदर्भ व शिक्षानीति का विरोध, इस तरह के कई सारे मुद्दे सुनाई पड़ रहे थे। प्रचार का यही तो कमाल है कि उत्सुकतावश मैंने भी यह फिल्म देखी। सपरिवार। और फिर प्रारंभ से ही अपने जमाने के इंजीनियरिंग कालेज को प्रतीकात्मक रूप से ही सही, ढूंढ़ता रहा। कोई ऐसा किस्सा, जिसे मैं अपने हॉस्टल जीवन से जोड़ सकूं, जब अंत तक मुझे नहीं मिला तो हताशा हुई थी। पता नहीं, यह किस इंजीनियरिंग कालेज का खाका खींचा गया था? बताया तो श्रेष्ठ कालेज ही गया था!! खैर नाम तो बदलना जरूरी था, लेकिन बिल्डिंग, कैम्पस या फिर उसकी आत्मा, कुछ तो कहीं जुड़ता! नहीं जोड़ पाया तो सोचा कि यकीनन आज के युग का कोई प्राइवेट कालेज होना चाहिए जो अब सैकड़ों-हजारों में है। लेकिन बेटी ने तुरंत शंका के साथ सिर हिलाया था, वो वर्तमान की इंजीनियरिंग छात्रा है। रैगिंग के दृश्य देखकर पत्नी और बच्चों सहित मुझको भी हंसी तो आई लेकिन अर्द्धांगिनी के इस सवाल पर चुप हो गया था, क्या तुम लोग भी इस तरह इलेक्ट्रिक रॉड पर पेशाब करवाते थे? पत्नी स्वयं एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कालेज की छात्रा रही हैं, मगर उसके इस प्रश्न में अचरज के साथ आक्रोश भी था। जवाब में कहना पड़ा था कि सुना है कुछ समय पूर्व तक रैगिंग में ऐसा हो जाता था, हादसे भी हुए हैं और शायद तभी न्यायालय ने इस पर सख्ती की थी। लेकिन आजकल ऐसा होना संभव तो नहीं लगता, अब तो ये गैर-कानूनी भी है, और इसलिए मुश्किल। लेकिन फिर सवाल उभरा था कि जब एक सीनियर यह नहीं कर सकता तो जूनियर का ऐसा करते दिखाना, क्या सही है? नहीं। नैतिक स्तर पर नहीं। और मजाक में भी नहीं। तो फिर ऐसा करते हुए दिखाना क्या प्रदर्शित करता है? बहरहाल, इस तरह की हरकतों पर तो हंसी आ ही जाएगी, यह कोई उपलब्धि नहीं। चूंकि यह शरारत फिल्म के हीरो द्वारा करायी गयी, इसलिए इस पर कई तर्क आ जाएंगे। मगर इस जोखिम से भरी शरारत को क्या सिर्फ फिल्मी कहकर छोड़ा जा सकता है? जो कि बाद में भी पुनः दिखाई गई। वैसे तो फिल्म की शुरुआत से लेकर अंत तक नाटकीयता है। सिर्फ एक दोस्त से मिलने के लिए पूरे प्लेन की इमरजेंसी लैंडिंग करवाना और सहनायक का बचकर भाग भी जाना, नायक द्वारा नायिका की बहन की प्रसव पीड़ा में अजीबोगरीब प्रयोग व सहयोग। ओफ! इतना लंबा दृश्य। सभी पक्के दोस्त अपने बचपन के मित्रों के लिए ऐसा करने लगे तो घाटे में चल रही एयरलाइंस बर्बाद हो जाएगी और अस्पताल बंद हो जाएंगे। चलिये, इसे भी मनोरंजन के नाम पर नौटंकी कह लें। मगर हंसी फिर भी नहीं आई थी। एक और बात, हमारे साथ भी सैकड़ों दक्षिण भारतीय छात्र पढ़ा करते थे। कुछ को यकीनन हिन्दी नहीं आती थी मगर कई धाराप्रवाह हिन्दी बोलते थे। कुछ एक तो सांवले होते हुए भी बेहद स्मार्ट और होशियार थे। लेकिन इस फिल्म में एक चरित्र के द्वारा किसी पूरे क्षेत्र को इस तरह से मजाक का कारण बनाया गया और हम हंसे भी। क्या दक्षिण भारत में भी दर्शक हंसे होंगे?
मैं आमिर खान का प्रशंसक हूं। ‘कयामत से कयामत तक’ की मासूमियत आज भी दिल पर अंकित है। और फिर ‘लगान’ की लगन और ‘रंग दे बसंती’ के युवा आक्रोश को कोई कैसे भूल सकता है। ‘तारे जमीं पर’ आते-आते उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता खुलकर सामने आने लगी थी। आज व्यवसायिकता के साथ-साथ विश्वसनीयता भी उनके साथ जुड़ चुकी है। सामाजिक सरोकार उन्होंने खुद प्रदर्शित किया है। इसमें कोई शक नहीं कि वह बाजार के विज्ञापन के प्रसार के सभी हथकंडे बेहतर ढंग से, उपयोग में लाते हैं। लेकिन उसके बावजूद उनके द्वारा कही गई बातों को हलके में नहीं लिया जाता। गौर फरमाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में उपरोक्त हल्के घटनाक्रम क्या प्रदर्शित करते हैं? डायरेक्टर व पटकथा लेखक की समझदारी या हमारी हंसी की नादानी। क्षेत्रीय व भाषा विवाद के आग में जल रहे देश में दक्षिण भारतीयों के लिए इस तरह की अशोभनीय व नाटकीय प्रस्तुति क्या न्यायोचित है? इसके बाद दक्षिण भारत में उत्तर भारतीयों के लिए विशिष्ट शब्दों से मजाक उड़ाया जाने पर क्या हम बर्दाश्त कर पाएंगे? दूसरे घटनाक्रम को अगर मजाक में कोई करे और हादसा हो जाए तो? इस पर तुरंत टिप्पणी की जा सकती है कि यह एक व्यवसायिक फिल्म है इसे हास्य के रूप में लिया जाना चाहिए। मगर इतनी हल्की हंसी? हम यह क्यूं भूलते हैं कि हर एक हंसी के साथ दिल पर एक लकीर भी अंकित होती है। ऐसा हास्य जिसमें फूहड़ता हो, तथ्यहीनता हो, एक हद तक चलेगा, मगर साथ ही अर्थ का अनर्थ करे उसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।
किसी भी व्यवस्था के खिलाफ कहना बहुत आसान होता है। मजाक उड़ाना तो उससे भी आसान। लेकिन साथ ही उसका हल भी बताना पड़े तो दिक्कत हो जाती है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति में परिवर्तन की आवश्यकता है। आज हर अभिभावक अपने बच्चों से अच्छे नंबरों की उम्मीद करता है। पिछले कुछ दिनों में यह रोग पागलपन की हद तक बढ़ा है। प्रतिस्पर्धा बेहद जटिल और कठिन हो गई है। मगर इसका मुख्य कारण जनसंख्या विस्फोट है। एक बर्थ के लिए ट्रेन में लाइन, अस्पताल में लाइन, जन शौचालय में लाइन, बस में सीट के लिए लाइन, फिल्म लाइन में हीरो-हीरोइन बनने की लंबी कतार। तो क्या इन सब व्यवस्था को हटा देना चाहिए? नहीं। सिर्फ सुधार व विस्तार की आवश्यकता है। मगर आज का छात्र जो इस मुसीबत से घिरा हुआ है, अपने पक्ष में की गई हर बात को सही करार देता है। उसके अभिभावक को भी इस समस्या का समाधान नहीं पता। वो तो बच्चे पैदा करके उन्हें रातोंरात सफल बना देना चाहता है। क्या कोई सलाह, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है, स्वीकार्य होगा? सभी बच्चे शरारती बन जाये, व्यवस्था विरोधी बन जाए, अपने साथियों के साथ किसी भी हद तक चले जाएं, टीचरों का मजाक उड़ाए, प्राचार्य को नीचा दिखाए, उनके घर में घुस जाए, गेट पर पेशाब कर दे, यह छात्र जीवन में शायद अच्छा लगता हो लेकिन किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं। चूंकि यह भविष्य के लिए चिंतित छात्रों एवं बच्चों के लिए चिंतित अभिभावकों को कठिन परिस्थिति में मजाक में ही कुछ पल की राहत देता है, इसलिए यह फिल्म लोगों को अच्छी लगी। लेकिन कल्पना कीजिए अगर आपका बच्चा इसी तरह का व्यवहार करने लगे, क्या आप इसे बर्दाश्त कर पाएंगे? स्वयं छात्र भी शांति में बैठकर सोचने पर इससे शायद ही सहमत हों। हर काल में शरारती बच्चे होते हैं मगर सभी सृजनात्मक भी हों, जरूरी नहीं और सभी सृजनात्मक शरारती हों, संभव नहीं। कुछ अंतर्मुखी भी होते हैं। अधिकांश शरारती जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। कई तो अपनी कमजोरियों को अपनी बदमाशी से ढकते हैं। दूसरी ओर कुछ अनुशासित और व्यवस्थित छात्रों ने चमत्कार किया है। जीवन सिर्फ हल्केपन और हास्य से नहीं चलता। समाज की व्यवस्था बनाए रखने के लिए कुछ नियम कायदे-कानून आवश्यक हैं। और यह भी सत्य है कि इन्हें सदैव सफल लोग पसंद करेंगे और असफल नापसंद। आज असफल लोगों की संख्या ज्यादा है। इसलिए फिल्म पसंद की गयी। व्यवस्थाएं परिवर्तनशील होती हैं। इनमें समय-समय पर बदलाव आवश्यक होता है। लेकिन नयी व्यवस्था में नये लोग असफल होंगे। लेकिन किसी भी काल में दो गहरे दोस्तों के द्वारा पैंट उतारकर, प्रमुख दोस्त के सामने रैगिंग की मुद्रा में आ जाना संभव नहीं। क्या यह फूहड़ता की श्रेणी में नहीं आता? कालेज से निकलने के दस वर्ष बाद ऐसी हरकतों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपने गरीब दोस्त के पारिवारिक व्यवस्था को हास्य का कारण बनाना, लड़के अमूमन पसंद नहीं करते, स्वाभिमानी जो होते हैं। कल्पना से हकीकत कई बार अधिक नाटकीय होती है लेकिन उसकी प्रस्तुतीकरण में संजीदापन होना चाहिए। फिर नाटक और नौटंकी में भी फर्क होता है। नौटंकी में सदैव भीड़ होती है। मगर फिर भीड़ का कोई वजूद नहीं होता। एक बात और, यहां बच्चों की पसंद की शिक्षा की बात की गई है, यह कहना बहुत आसान है, लेकिन कई बूढ़े भी अपनी पसंद नहीं जान पाते। तो क्या उन्हें तमाम उम्र प्राइमरी में ही रखा जाये?
इसमें कोई शक नहीं कि कलाकार मूडी होता है। उसमें एक धुन होती है। कला का अभिमान कब अहम् में परिवर्तित हो जाता है पता ही नहीं चलता। सफल लोगों का यह गुण भी आमजन को अच्छा लगता है। आमिर खान में भी सफलता का नशा और स्वयं के होने का अभिमान कई बार कई तरह से झलकता है। यही कारण है कि वह फिल्म स्क्रीन पर हर समय हर वक्त छाये रहना चाहते हैं। कभी-कभी यह रोग इस हद तक बढ़ जाता है कि सहनायकों/नायिका को नायकों का व्यक्तित्व उभारना होता है। कई मौकों पर यह बात इस फिल्म में भी उभरकर आती है। आमिर खान उन कलाकारों में से हैं, उस ऊंचाइयों पर पहुंच चुके हैं, जहां से उनसे उम्मीद शुरू होती है। पैसा अब उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। प्रायोजित ड्रामें से खड़ी भीड़ की क्षणिक ताली अचानक गायब हो जाती है। भेड़चाल का कुछ नहीं पता। उनके इस तरह के प्रयोग भविष्य के उजले व्यक्तित्व के लिए ठीक नहीं। महान बनने के लिए बेवकूफियों से बचना होता है। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन अपनी पहली पारी की सफलता में चूर होने पर इसी तरह की बेहूदगियां करने लगे थे। कब दर्शकों की आंखों से उतर गए पता ही नहीं चला। मगर दूसरी पारी में वह अधिक संवेदनशील और सहज बनकर आए हैं। तब से सफलताओं के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। अभी-अभी उनकी नयी फिल्म ‘पा’ हास्य से भरपूर, संदेश के साथ-साथ मजबूत कथासूत्र में पिरोई हुई एक बेहतरीन फिल्म है। आज के मीडिया रिपोर्टिंग के हिसाब से शायद वे बहुत अधिक सफल न मानी जाती हो। मगर उसमें कुछ बात है कि कल भी उसे दूसरी-तीसरी बार देखने पर नयापन महसूस होगा। वह कभी पुरानी नहीं पड़ेगी। और यह समय के साथ-साथ क्लासिकल में आ जाएगी। जिसे समय धूमिल नहीं कर सकता। आमिर खान व उनके महान डायरेक्टर-पटकथा एवं प्रसिद्धि के लिए लड़ने वाले मूल लेखक से सवाल है कि क्या कुछ दिनों के बाद वे स्वयं की फिल्म ÷थ्री इडियट्स’ देखा जाना पसंद करेंगे?